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Saturday, March 24, 2018

रावण वध

कहते हैं रावण ब्राम्हण था ...एक ऐसा असाधारण ब्राम्हण जो तपस्वी, शिवभक्त, तन्त्र विद्या में पारंगत, ज्ञानी एवं वेदों का परम ज्ञाता था I.... उस युग में ब्राम्हणों को ज्ञान का भण्डार एवं वाहक माना जाता था अतः उनकी हत्या करने का मतलब ज्ञान को नष्ट करने समान माना गया I ...अतः ब्राम्हण की हत्या को ब्रम्ह हत्या के बराबर मान कर शास्त्रों में ब्राम्हण को मृत्यु दण्ड देना भी वर्जित किया गया था I
न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मा विद्यते भुवि।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।
अर्थात ब्राम्हण के वध से बढ़कर और कोई पाप नहीं। ब्राम्हण का वध करने की तो राजा को कल्पना भी नहीं करना चाहिए। .......खैर ..वर्ण व्यवस्था के दौर में राम एक क्षत्रिय राजा थे ..... I ...ये क़तई नहीं कहा जा सकता है कि उन्हें उक्त बात का ज्ञान नहीं होगा I .......जो भी हो ....... रावण जब मृत्यु के निकट था तब उसके ज्ञान के भंडार से कुछ ज्ञान समेट लेने के लिए ही राम ने शायद लक्ष्मण को रावण के पास भेजा हो !.......ज्ञान प्राप्त करने तो वे ख़ुद भी तो जा सकते थे परन्तु ....परन्तु ये व्यवहारिक दृष्टि से उचित नहीं होता ....I गौरतलब बात ये है कि राम मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं उन्हें अपनी लिमिटेशंस पता है I शायद उन्हें ये भी पता हो कि उन्होंने जो किया है.... उसका भुगतान उन्हें आने वाले युगों तक करना पड़े !!!

Saturday, February 17, 2018

टैक्सेबल इनकम

टैक्सेबल इनकम क्या होनी चाहिए ....इसे सही तरीक़े से परिभाषित किया जाना चाहिए I ....कमाई का उपयोग किस कार्य एवं उद्देश्य के लिए किया जा रहा है उसे भी देखा जाना चाहिए ....I वर्तमान में २५००००/- पर जो छूट है यह .....छूट का आधार कमाई की मात्रा है I जबकि यह उचित आधार नहीं कहा जा सकता है .....I ....."टैक्सेबल इनकम" की परिभाषा का आधार कमाई की मात्रा नहीं बल्कि कार्य की प्रकृति होनी चाहिए ..... I ...कार्यों का विभाजन होना चाहिए - १- टैक्सेबल कार्य और २- नॉन टैक्सेबल कार्य .....फ़िर चाहे कमाई की मात्रा कुछ भी हो I....इसी प्रकार खर्च भी दो श्रेणियों में विभाजित होने चाहियें .....१- टैक्सेबल और २- नॉन टैक्सेबल i ....यहाँ नियम पक्का एवं कड़ा होना चाहिए कि ....यदि नॉन टैक्सेबल कमाई से यदि टैक्सेबल खर्च किया जाता है तो कमाई टैक्सेबल मानी जानी चाहिए ....और यदि टैक्सेबल कमाई से खर्च नॉन टैक्सेबल किया गया है तो छूट मिलनी चाहिए .....ये सब बाद की बातें हैं I मूल बात है .... "टैक्सेबल कमाई" का आधार मात्रा होने के बजाय कार्य एवं खर्च का मक़सद होना चाहिए क्योंकि एक बात हमेशा ध्यान रहे कि कुछ कार्यों में खून पसीने की कमाई होती है तो कुछ में हींग लगे न फिटकरी वाली बात होती है I

Saturday, January 27, 2018

बँटवारा .. एक नए नज़रिए से

पाकिस्तान में मुसलमानों की जनसंख्या बीस करोड़ के लगभग है........इधर भारत में भी लगभग बीस करोड़ के आसपास मुस्लिम्स हैं ....I .....पाकिस्तान का कुल क्षेत्रफल .....सात लाख छियानवे हज़ार वर्ग किलोमीटर है जो अंदाज़न भारत के कुल क्षेत्रफल का एक चौथाई है I .......खैर.....हम आज़ाद हुए और भारत से पाकिस्तान अलग हो बँटवारा हो गया I जिसका भारत में आज भी अफ़सोस किया जाता है ...साथ ही इसके लिए महात्मा गाँधी को दोषी माना जाता है हालाँकि .......ये दिगर सवाल होगा कि बँटवारे का अफ़सोस ज़मीन छिन जाने का है या भारत से मुसलमानों के चले जाने का है अथवा हिन्दुओं से मुसलमानों की जुदाई का है ???
........एक गणित के अनुसार भारतीय मुसलमान पाकिस्तान बराबर की ज़मीन पर ...भारत में बसे हुए हैं ....I यदि बँटवारा नहीं होता तो आज भारत में चालीस करोड़ मुस्लिम्स होते .... ये एक बड़ी ही सामान्य सी बात है ....परन्तु बँटवारे की एक खास बात ये थी कि मो.अलि ज़िन्ना के साथ भारत के आधे मुसलमान ही पाकिस्तान गए थे .....तो क्यों नहीं इसे मुसलमानों का बँटवारा माना जाये ?? .....एक ....भारत के मुसलमान और दूसरे इस्लाम के नाम पर ज़िन्ना के साथ हो गए ..मुसलमान I जो भी हो ........पाकिस्तान को तो कभी न कभी बनना ही था कल नहीं तो आज I ... ....उस वक़्त जो बँटवारा हुआ था ..उसमें भारत की सिर्फ़ ज़मीन ही गयी थी I.... .... ..........आज के संदर्भ में .....बात करें तो ...तो....जिन्हें अलग होना था वे पाकिस्तान तभी चले गए I
.........मेरा अभिप्राय बस इतना कि हमें बँटवारे को पहले सही तरह से समझना होगा.....वोट बैंक की राजनीति ने इसे हिन्दू मुस्लिम के बँटवारे के तौर पर चित्रित किया है.... जबकि वास्तविक में यह बँटवारा मुसलमानों का हुआ था I .....आज बँटवारे को ग़लत बताने का मतलब.... पाकिस्तान के मुसलमानों को भारत के साथ जोड़कर देखने जैसा है .....जो क़तई संभव नहीं हैI .... इस्लाम के नाम पर .....ज़िन्ना के साथ चले गए मुसलमानों से आप क़तई अपेक्षा नहीं कर सकते थे कि वे भारतीय होकर भारत का साथ निभाते !....दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु ये भी है कि.......पाकिस्तान चले गए मुसलमानों के समकक्ष भारतीय मुसलमानों को.... खड़ा कर भारत के प्रति उनके लगाव पर संदेह कर ...देशभक्ति का आंकलन करना भी जायज़ नहीं है I ....आज हमें बस इस बात का अफ़सोस करना चाहए कि ........... बँटवारे के नाम पर हमारे देश की चौथाई ज़मीन चली गयी .........और अफ़सोस है भी I ........बँटवारे के दौरान जो भी जान माल का नुकसान हुआ था उसे ..मानवता के नाते उचित नहीं माना जा सकता....परन्तु बँटवारा नहीं होता तो ...... भारत की आबो हवा में बैठे बैठे एक अलग मुस्लिम राष्ट्र का ख्वाब देखना बँटवारे से अधिक विस्फ़ोटक होता I अतः सच्चाई के तौर पर स्वीकारना चाहिए कि बँटवारा भारत के लिए उचित ही था I ज़िन्ना का साथ देने वाले मुसलमान भारत की आबो हवा में रहकर भी कभी हमारे देश के नहीं होते I ......खैर जो भी हो ....एक बात और ....कूटनीति के तौर पर श्रीमती गाँधी द्वारा बंगलादेश को मान्यता देकर पाकिस्तान के मुसलमानों का एक और बँटवारा किया जाना सोने पे सुहागा ही साबित हुआ है I

Thursday, January 11, 2018

तटस्थ अम्पायर एवं नीति वाक्य

संविधान में पंथनिरपेक्षता का सन्दर्भ.... क्रिकेट में तटस्थ अम्पायरिंग की तरह नहीं लेना चाहिए .....कि'....मेज़बान देश के अम्पायर पर भरोसा नहीं है... इसलिए किसी तीसरे देश के आदमी को बुला लीजिये I.......संविधान के अंतर्गत ........सरकार सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं के लिए 'पंथनिरपेक्षता' की बात कही गयी है न कि संस्कृति निरपेक्षता की I.......संस्कृति एवं पन्थ में अंतर है I ..... किसी संस्कृति विशेष में कई पंथ हो सकते हैं.....परन्तु एक पंथ में कई संस्कृति ....कदापि नहीं हो सकती I ......... कहा जाता है कि ....हमारे देश में अलग अलग संस्कृति के लोग बसते हैं I ......मेरी निगाह में यह सरासर ग़लत है .....बल्कि इसे यूँ कहना चाहिए कि हमारे देश में एक ही संस्कृति के लोग अलग अलग पंथों में विभाजित हैं I ......धर्म की दृष्टि से भारत में मूल रूप से दो धड़े हैं... एक हिन्दू तो दूसरे मुसलमान I ......वास्तव में देखा जाये तो दोनों के लोग एक ही संस्कृति के होते हुए दो पंथों में विभाजित हैं I .......संस्कृति का सम्बन्ध सीधा जीवन मूल्यों से होता है I जो जीवन मूल्य हिन्दूओं के हैं वे ही थोड़ा बहुत फ़ेरबदल के साथ मुसलमानों के भी हैं I अच्छे कर्म कर स्वर्ग प्राप्ति का उद्देश्य दोनों ओर दिखाई देता है I दान कर पुण्य कमाने की बात दोनों ओर है I विवाह के माध्यम से संतानोत्पत्ति एवं वंश वृद्धि का सिद्धांत दोनों तरफ़ हैं I .......संस्कृति बेहतर जीवन को जीने की शैली का नाम है ...I क़ुरान शरीफ़, गीता, मनुस्मृति आदि में इनके रचनाकारों ने बेहतर जीवन शैली की ही बात कही है I........वक़्त के साथ कुछ तुच्छ लोग इन्हीं पंथों के ठेकेदार बनकर अपने हिसाब से लोगों को हाँकने लगते हैं ...तब सब घालमेल हो जाता है I .......भारत में संवैधानिक तौर पर कई जगह ...नीति वाक्य लिखे हुए हैं जैसे - सत्यमेव जयते. योगक्षेमम् वहाम्यहम अथवा ‘यतो धर्मस्ततो जयः आदि का सम्बन्ध संस्कृति से है न कि किसी पंथ विशेष से I गर ये हिन्दू के हैं तो इनका तर्जुमा उर्दू में कर इन्हें इस्लाम का बना दीजिये क्या कोई फर्क़ पड़ेगा ? आजकल कुछ लोग इन्हें पंथ के चश्में से देख रहे हैं ..... जो ग़लत है I .... क्या पंथ निरपेक्षता के तहत किसी तीसरे देश की संस्कृति के नीति वाक्य दीवारों पर लगाने होंगे ठीक तटस्थ अम्पायर की तरह ????

Saturday, January 6, 2018

सियार का मन्दिर -

एक चालाक सियार था I वह अक्सर जंगल के पास के गांवों में मुर्गी, बकरी आदि के शिकार के लिए जाया करता था i गाँव वालों के मुख से उसने कई बार सुन रखा था कि जब सियार की मौत आती है तो वह गाँव की और दौड़ पड़ता है .....ये सुनकर अक्सर उसे मौत का डर भी सताता था I ......डर से निजात पाने की हमेशा सोचता रहता था I एक दिन किसी ने उसे तरक़ीब सुझाई I .......तरक़ीब के अनुसार.....सियार गाँव के बाहर एक टीले पर चढ़..... असमान की ओर तकते हुए रोज़ "ऊऊऊ" कर ‘हूक’ भरने लगा I .....आरम्भ में तो गाँव वालों ने उसे अनदेखा कर दिया ....परन्तु धीरे धीरे कुछ लोग का ध्यान गया ...कि सियार एक निश्चित दिशा में बैठ कर निश्चित समय पर ही हुँकार लगाता है ....I दो चार लोगों ने जाकर सियार से पूछा तो सियार हाथ जोड़कर बोला – हे महानुभावों ! ऐसा करने से मुझे ईश्वर के दर्शन होते हैं .....I गाँव वालों ने सियार की बात सुन खूब मज़ाक़ बनाई कि भला ऐसे भी कहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं ?? गाँव वाले उसकी खिल्ली उड़ाते रहे परन्तु सियार आत्मविश्वास के साथ डटा रहा I एक दिन उसने 'ऊऊऊ' बोलना शुरू ही किया था कि उसे उसकी प्रतिध्वनी सुनाई दी I उसने धीरे से पीछे मुड़ कर देखा .... गाँव के चंद लोग टीले के नीचे छुपकर उसके साथ राग मिलाकर 'ऊऊऊ" कर रहे हैं I उसे तरक़ीब बताने वाले की बात ध्यान में आयी कि यदि एक ही कार्य को पूरे आत्मविश्वास के साथ बार बार दोहराया जाये तो लोग स्वभाव के मुताबिक़ पहले तो उसकी मज़ाक़ बनाएँगे फ़िर उस पर गौर करेंगे फ़िर उस पर बिना सोचे समझे विश्वास कर उसका अनुकरण करने लगेंगे और अंत में उसके लिए जान तक देने तैयार हो जायेंगे I........... वह समझ गया कि उसकी तरक़ीब काम कर गयी है I इधर .........बहुत दिन गुज़रने के बाद भी जब ईश्वर के दर्शन नहीं हुए तब लोगों को बेवकूफ़ी का अहसास होने लगा परन्तु अब देर हो चुकी थी .....सवाल गाँव वालों के सामने मुंह दिखाने का भी था ....! वे सियार को मार भी नहीं सकते थे ऊपर से रोज़ ऊऊऊऊऊ करने का झंझट सो अलग I वे अपनी ही मूर्खता के जाल में फंस चुके थे I .......सियार उनकी मन:स्थिति को भाँप चुका था उसने लोगों से कहा कि तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम इस टीले पर मेरा एक मन्दिर बनवाकर .......कहीं ओर दफ़ा हो जाओ ! टीले पर सुन्दर सा एक मन्दिर बन चुका था I .....अब सियार को गाँव की ओर शिकार करने नहीं जाना पड़ता है गाँव के लोग ख़ुद ही भरे पूरे तगड़े मुर्गे उसे भेंट में चढ़ा जाते हैं .....I सियार बड़े मज़े से कहता है कि .....गाँव में अब किसी को मौत आती है तो पूरा गाँव सियार की और दौड़ पड़ता है I 

Wednesday, December 27, 2017

ऋण

एक राजा था I उसके दरबार में एक दिन एक व्यापारी आया I व्यापारी बड़ा चतुर एवं शातिर था I ....उसने राजा को समझाया कि महाराज आपके ख़जाने में जो धन पड़ा है यदि उसमें से हर माह चुटकी भर धन ऋण के रूप मुझे दें....तो मैं उससे व्यापार कर दोगुना पुनः लौटा सकता हूँ..... I राजा को व्यापारी की बात पसंद आई I ........."धन कितना देना होगा" - राजा ने पूछा ...तो व्यापारी ने झट से अपनी ज़ेब से एक ख़ाली गुब्बारा निकाल कर राजा को दिखाते हुए कहा कि महाराज ! बस इस गुब्बारे जितनी बड़ी थैली भरकर ! .....राजा ने खजांची को गुब्बारे जितनी बड़ी थैली में समाये उतना धन हर माह देने का आदेश दे दिया I ......पहला माह पूरा होते ही...वादे के मुताबिक़ व्यापारी ने .....राजा को दिखाए गए गुब्बारे जितनी थैली में भरकर दो गुना धन लौटा दिया I.... .....राजा व्यापारी की ईमानदारी एवं हर माह दो गुना धन पाकर बड़ा..... ख़ुश रहने लगा I....माह पर माह गुज़रने लगे...दोगुना धन आने के बावज़ूद ख़ाली होते ख़जाने को देख खजांची चिंतित रहने लगा I उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था I ....एक दिन उसने यह बात राजा को बताई ! ...... राजा भी कुछ समझ नहीं पाया I .... राजा के दरबार में एक बुद्धिमान व्यक्ति था I .... उसने व्यापारी को बुलाया ..और उसकी ज़ेब से दो थैलियाँ निकाली ....एक छोटी और एक बड़ी I दोनों थैलियाँ राजा एवं खजांची को दिखाते हुए बोला - "महाराज ! यह व्यापारी शातिर है.......जब यह ख़जाने में धन लेने जाता है तब गुब्बारे को हवा भर कर बड़ा कर देता है और बड़ी थैली जितना धन ले जाता है ....और लौटाते वक़्त ख़ाली गुब्बारे जितनी छोटी थैली से नाप कर दोगुना धन देकर अपना वादा पूरा कर लेता है I ...राजा एवं खजांची को पूरी बात समझ आ चुकी थी I ....

Friday, December 22, 2017

लेखन एवं चित्रण

वाल्मीकि एवं वेदव्यास के समय शायद चित्रकार नहीं होते थे वरना रामायण एवं महाभारत ग्रंथों .... में शब्दों के साथ चित्र भी मिलते...... चित्र होते तो रंग भी होता ......I .....हमारे देश में चित्रण एवं लेखन की ..परम्परा ....नहीं थी बल्कि कंठस्थ करने की परम्परा थी .....ज्ञान को कंठ में रखकर उसे सुरक्षित रखा जाता था ......कंठ में रखने के लिए उसे कंठस्थ याद कर लिया जाता था I ........गायन कंठस्थ करने का सबसे आसान तरीका है इसलिए हमारे यहाँ वेद पुराण रामायण महाभारत आदि श्लोकों एवं पदों में रचित हैं I .... कंठस्थ रखने का काम मूल रूप से ब्राम्हणों का होता था इसीलिए उनकी हत्या पाप माना जाता था ...I.......जो भी हो ..... किसी नुकीली चीज़ से भूमि अथवा पहाड़ों की दीवारों पर खुरचने से शायद लेखन एवं चित्रण का अविष्कार हुआ होगा ....यही नुकीली चीज़ वक़्त के साथ क़लम या आधुनिक पेन में बदल गयी होगी I खैर ......कंठ शरीर का एक भाग है I ....ज्ञान शब्द के रूप में एक व्यक्ति के कंठ से निकल कर दूसरे के कंठ में चला जाते थे .... इसीलिए हमारे यहाँ शब्द को ही ज्ञान माना गया है I ...... ज्ञान के रूप में शब्द हमारे कंठ में बिराज कर हमारे शरीर का ही एक अंग बन जाते थे .....इसलिए ज्ञान के लिए न पढ़ना आना ज़रूरी था न लिखना आना I हम अनपढ़ तो थे ही नहीं I पता नहीं कब हमारा ज्ञान लिखने एवं पढ़ने के नाम पर कागजों पर उतर आया और हम अनपढ़ हो गए ???? .... आज शब्द का मतलब महज़ कागज़ पर बनी कुछ आकृतियां भर है ....ज्ञान नहीं I उन्हीं आकृतियों को पहचानना पढा-लिखा होना माना जाता है I ...... हमारी सोच में ज्ञान का संचारण कंठ से माना गया होगा न कि मस्तिष्क से ....इसलिए शिव ने गरल (ज़हर) गले में ही धारण कर उसे आगे बढ़ने से रोक लिया था I आज लिखने एवं पढ़ने के आदी हो चुकने के कारण ये सभी बातें कल्पनातीत लगतीं है I शायद समझ में ही न आये I