समय बदल गया, परिस्थितियाँ बदल गई, हम बदल गए, पीढ़ियाँ बदल गईं, पर नहीं बदले तो हमारे संस्कार। हज़ारों साल पहले बने हमारे संस्कारों के पालना की रीत की सुई वहीं अटकी हुई है। कुछ साल पहले तक जो संतान कहे जाते थे वो आज माता-पिता बन गए। जब वे संतान थे तब उन्हें उनके माता-पिता उन्हें संस्कारों की पालना करने की कहा करते थे परंतु क्या उनके माता-पिता ने कभी उन संस्कारों की पालना की थी ? जो अब अपने बच्चों से पालना की अपेक्षा कर रहे हैं। ये एक शृंखला है जो ऊपर से चली आ रही है | कहते हैं संस्कार जीवन को अनुशासित करते हैं | माता-पिता का आदर करना हमारे संस्कारों में से एक संस्कार है। भगवान राम इसी आदर करने के संस्कार के कारण बिना आगा-पीछा सोचे अपने पिता के आदेश पर वनवास चले गए थे। संतान ने तो संस्कार की पालना कर ली परंतु माता-पिता में से पिता ने ऐसा क्यों किया सब जानते हैं। उस ग़लती पर परदा डालने के लिए श्राप की थ्योरी लागू कर दी गई। श्राप की थ्योरी से उस समय के लोग शायद संतुष्ट गए होंगे परन्तु आज अगर कोई व्यक्ति ग़लती करता है तो उसकी संतान इतनी होशियार हो गई है कि वह सब कुछ समझती है | ऐसे में उस संतान को समझाओ कि बेटा ! तेरे पिता ने ऐसा गंदा कार्य श्राप वश किया है तो वह आपकी बात पर हँसेगा | नारायण दत्त तिवारी डी. एन. ए. कांड के बाद बदनाम हो गए। ऐसी बात नहीं है कि उन्होने समाज के प्रति अच्छे कार्य नहीं किए होंगे परंतु कोई इतिहासकार ये लिख दे कि ऐसा किसी श्राप के कारण हुआ था तो हम सब हँसेंगे।
वक्त बदल गया है परंतु आज तक हमने हमारे संस्कारों की पालना की रीत को समयानुसार व्यावहारिक नहीं बनाया। संस्कारों की कोई सूची नहीं बनाई, मैं यहाँ सोलह संस्कारों की बात नहीं कर रहा हूँ। संस्कार से मेरा मतलब बड़े सामान्य अर्थों में उन नियमों से है जो जीवन को अनुशासित करने में काम आएँ | किसी भी संस्कार में दो बातें होती हैं एक तो उसका 'आशय' दूसरा उसकी पालना की रीत। एक सवाल उठता है कि क्या संस्कार की पालना की रीत बिना निभाये भी संस्कारवान हो सकते हैं ? एक महिला अपने सास ससुर के आगे डेढ़ फुट का घूँघट करके सम्मान का प्रदर्शन करती है तो दूसरी शायद बिना सर ढंके ही सम्मान करती हो। हमारी सोच संस्कार की पालना के तौर-तरीकों में ही अटकी पड़ी है। ऊपर कही बात में हो सकता है घूँघट की आड़ में वह महिला सास-ससुर को गलियाँ दे रही हों परन्तु हम इस बात से खुश हैं कि उसने चार लोगों के बीच अपने सास-ससुर का सम्मान किया। समाज उस औरत को बड़ी संस्कारवान बहु कहेंगे। ऐसे उदाहरण आपको अपने चारों ओर सैंकड़ों मिल जाएंगे। इस प्रकार संस्कारों की पालना के प्रदर्शन मात्र से परिवारों में सिर्फ सड़ांध पैदा होती है प्रेम नहीं। हमने आज तक संस्कारों की पालना की रीत में देश काल के अनुसार बदलाव नहीं किए। एक छोटा सा संस्कार है कि 'बड़ों का आदर करना चाहिए' परंतु जब हम बस में सफ़र कर रहे होते हैं तब किसी बुजुर्ग को खड़ा देख कर हम सारे संस्कार भूल जाते हैं। मेरी इस बात पर एक बार एक सज्जन मुझसे चिढ़कर बोले कि क्या मेरे बच्चे को सीट से उठा कर, इस बुढ़िया को बिठा दूं ? मुझे बड़ी ज़ोर की हँसी आ गई। मैने कहा भाई साहब ! आपके बच्चे को सीट से उठा कर संस्कार की पालना की बात नहीं कही थी। मैने तो आपसे उम्मीद की थी कि आप खड़े होकर इस बुढ़िया को बिठा देंगे। हमारे पास सीट होती तो ज़रूर उस बुढिया को दे देते।
खैर, कमोबेश हमारे सब के हाल उस आदमी जैसे ही हैं। ज़्यादा नहीं तो आज़ादी के बाद से ही सही, अगर हमारी संतानों को शिक्षा के माध्यम से संस्कारों की सीख दी होती तो शायद बदलती पीढ़ी के क्रम में आज कलमाडी, ए राजा, जयसवाल आदि देश में बड़े बड़े घोटाले नहीं करते | मेरी सोच कुछ अलग है, परिवार के स्तर पर प्रेम ही सबसे बड़ा संस्कार है फिर चाहे संस्कार की रीत निभाई हो या नहीं। देश के स्तर पर संस्कार एवं उनकी रीत दोनों महत्त्व पूर्ण हैं। धन्यवाद।
- प्रियदर्शन शास्त्री
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