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Friday, December 22, 2017

लेखन एवं चित्रण

वाल्मीकि एवं वेदव्यास के समय शायद चित्रकार नहीं होते थे वरना रामायण एवं महाभारत ग्रंथों .... में शब्दों के साथ चित्र भी मिलते...... चित्र होते तो रंग भी होता ......I .....हमारे देश में चित्रण एवं लेखन की ..परम्परा ....नहीं थी बल्कि कंठस्थ करने की परम्परा थी .....ज्ञान को कंठ में रखकर उसे सुरक्षित रखा जाता था ......कंठ में रखने के लिए उसे कंठस्थ याद कर लिया जाता था I ........गायन कंठस्थ करने का सबसे आसान तरीका है इसलिए हमारे यहाँ वेद पुराण रामायण महाभारत आदि श्लोकों एवं पदों में रचित हैं I .... कंठस्थ रखने का काम मूल रूप से ब्राम्हणों का होता था इसीलिए उनकी हत्या पाप माना जाता था ...I.......जो भी हो ..... किसी नुकीली चीज़ से भूमि अथवा पहाड़ों की दीवारों पर खुरचने से शायद लेखन एवं चित्रण का अविष्कार हुआ होगा ....यही नुकीली चीज़ वक़्त के साथ क़लम या आधुनिक पेन में बदल गयी होगी I खैर ......कंठ शरीर का एक भाग है I ....ज्ञान शब्द के रूप में एक व्यक्ति के कंठ से निकल कर दूसरे के कंठ में चला जाते थे .... इसीलिए हमारे यहाँ शब्द को ही ज्ञान माना गया है I ...... ज्ञान के रूप में शब्द हमारे कंठ में बिराज कर हमारे शरीर का ही एक अंग बन जाते थे .....इसलिए ज्ञान के लिए न पढ़ना आना ज़रूरी था न लिखना आना I हम अनपढ़ तो थे ही नहीं I पता नहीं कब हमारा ज्ञान लिखने एवं पढ़ने के नाम पर कागजों पर उतर आया और हम अनपढ़ हो गए ???? .... आज शब्द का मतलब महज़ कागज़ पर बनी कुछ आकृतियां भर है ....ज्ञान नहीं I उन्हीं आकृतियों को पहचानना पढा-लिखा होना माना जाता है I ...... हमारी सोच में ज्ञान का संचारण कंठ से माना गया होगा न कि मस्तिष्क से ....इसलिए शिव ने गरल (ज़हर) गले में ही धारण कर उसे आगे बढ़ने से रोक लिया था I आज लिखने एवं पढ़ने के आदी हो चुकने के कारण ये सभी बातें कल्पनातीत लगतीं है I शायद समझ में ही न आये I

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