Temple of Bhartrihari- Ujjain |
"जो साहित्य संगीत एवं कला से विहीन मनुष्य है वह साक्षात् बिना पूंछ एवं सींग का पशु है। वास्तव में (इस धरा) पर जो पशु हैं ये उनका परम सौभाग्य है कि ऐसा जीव (बिना बिना पूंछ एवं सींग का) घास नहीं खाता है।"
अब सवाल आज की पीढ़ी का है। क्या आज साहित्य, संगीत एवं कला इन तीनों में से किसी एक का भी ज्ञान हम अपने बालक-बालिकाओं को दे रहे हैं ? नहीं। अर्थतंत्र के पीछे भागती हमारी व्यवस्थाओं ने इन तीनों को दरकिनार कर दिया है। महान कवि भर्तृहरि ने साहित्य, संगीत एवं कला इन तीनों की आवश्यकता यूँ ही नहीं बताई है। केवल ज्ञान अर्जित कर लेने मात्र से मानव का व्यक्तित्व पूर्णता को प्राप्त नहीं हो जाता है बल्कि पूर्णता के लिए उक्त तीनों का आत्मसात होना आवश्यक है। कोरा ज्ञान अथवा कोरी ट्रेनिंग पा लेने से कोई आदमी अपने आप को ज्ञानवान समझ सकता है परन्तु साहित्य, संगीत एवं कला के बिना वह फिर भी अधूरा है ऐसे व्यक्ति के लिए ही महाकवि ने उन्हें पशु समान माना है। महाकवि की बात को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है-
साहित्य, अर्जित ज्ञान के प्रकटीकरण का माध्यम है जबकि संगीत लयबद्धता एवं तारतम्यता का दूसरा नाम है इसलिए अर्जित ज्ञान के प्रकटीकरण में लयबद्धता एवं तारतम्यता की अत्यंत आवश्यकता होती है। अब बात आती है कला की। कला वो तकनीक है जिससे आप अपने अर्जित ज्ञान को भौतिक रूप में प्रकट कर पाते हैं। कला शब्द स्वयं में कलात्मकता का प्रतीक है। आप हो सकता है अपने बालक को एक अच्छा डॉक्टर या इंजिनियर बनाना चाहें और वो आपकी इच्छा के अनुरूप बन भी जाए परन्तु उक्त तीन बातों के अभाव में वह पशु समान ही रहेगा। ये बात हमारे समाज में साबित भी हुई है। कन्याभ्रूण हत्या करने वाले जितने भी चिकित्सक हैं वे एक अच्छे ज्ञानवान चिकित्सक हो सकते हैं परन्तु साहित्य संगीत एवं कला के अभाव में वे फिर भी पशु समान ही हैं। इसके पीछे मेरा एक तर्क है। साहित्य संगीत एवं कला मानव की क्रूर प्रवृति का शमन भी करते हैं। मेरी इस बात के जवाब में कोई ये कह सकता है कि साहित्य, संगीत एवं कला से परिपूर्ण व्यक्ति फिर भी पशुता करे तो ? तो भाई ! ऐसा मानव पशु नहीं दानव या राक्षस की श्रेणी में रखा जाएगा। धन्यवाद ।
साहित्य, अर्जित ज्ञान के प्रकटीकरण का माध्यम है जबकि संगीत लयबद्धता एवं तारतम्यता का दूसरा नाम है इसलिए अर्जित ज्ञान के प्रकटीकरण में लयबद्धता एवं तारतम्यता की अत्यंत आवश्यकता होती है। अब बात आती है कला की। कला वो तकनीक है जिससे आप अपने अर्जित ज्ञान को भौतिक रूप में प्रकट कर पाते हैं। कला शब्द स्वयं में कलात्मकता का प्रतीक है। आप हो सकता है अपने बालक को एक अच्छा डॉक्टर या इंजिनियर बनाना चाहें और वो आपकी इच्छा के अनुरूप बन भी जाए परन्तु उक्त तीन बातों के अभाव में वह पशु समान ही रहेगा। ये बात हमारे समाज में साबित भी हुई है। कन्याभ्रूण हत्या करने वाले जितने भी चिकित्सक हैं वे एक अच्छे ज्ञानवान चिकित्सक हो सकते हैं परन्तु साहित्य संगीत एवं कला के अभाव में वे फिर भी पशु समान ही हैं। इसके पीछे मेरा एक तर्क है। साहित्य संगीत एवं कला मानव की क्रूर प्रवृति का शमन भी करते हैं। मेरी इस बात के जवाब में कोई ये कह सकता है कि साहित्य, संगीत एवं कला से परिपूर्ण व्यक्ति फिर भी पशुता करे तो ? तो भाई ! ऐसा मानव पशु नहीं दानव या राक्षस की श्रेणी में रखा जाएगा। धन्यवाद ।
आपके विचार चिंतनीय हैं. अगर आज के पालक इसी तरह सोचेंगे तो समाज सुसंकृत हो जाएगा.
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