भगवान श्री कृष्ण ने ये बिलकुल भी नहीं कहा है कि तू कर्म करके फल की इच्छा मत कर !!! ..... यदि ऐसा होता तो मनुष्य कर्म ही क्यूँ करता ....I ....यहाँ एक सवाल मन में पैदा होता है कि श्री कृष्ण स्वयं भी तो कौरवों की सेना में सामने खड़े तमाम मुख्य महारथियों .... एवं ज्ञानियों को उनके किये की सज़ा दे सकते थे ...... ??? अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर इतनी माथा पच्ची क्यों की ??? .... हमें एक बात समझनी होगी श्री कृष्ण को .....कौरवो के महारथियों को 'अधर्म' के लिए उनके कर्मों का फल देना था न कि पाप के लिए I..... श्री कृष्ण के लिए पाप एवं अधर्म में अंतर है I........ कंस ने अधर्म नहीं बल्कि .......पाप किया था I ...प्रकृति की रचना को मनुष्य द्वारा नष्ट करना पाप है...... अतः जिन जिन ने पाप किया था उन्हें ...तो .... स्वयं कृष्ण ने समाप्त किया था .... परन्तु अधर्म. ... मनुष्य के द्वारा किये गए कर्मों की गड़बड़ी से पैदा होता है I प्रकृति की रचना एवं "कर्म की दुनिया" दोनों अलग अलग हैं I .... अधर्म कर्म से सम्बन्धित होता है इसलिए उसे मानवीय कर्मों से ही ठीक किया जा सकता है ....I यहाँ कृष्ण ने कर्म के लिए एक मानव के रूप में अर्जुन का चयन किया था..... I ....अपनों पर तीर चला कर उनकी हत्या कर पाप न हो जाये..... इसलिए श्री कृष्ण ने तरकीब निकाली कि चलो भाई ! ....अर्जुन के द्वारा किये जाने वाले कर्मों में से फल को ही अलग कर देते हैं ... ताकि पाप न हो ..वरना कंस एवं अर्जुन में फर्क़ क्या रह जाता ? यदि पाप हो जाता तो कंस की तरह अर्जुन को का नाश भी स्वयं कृष्ण को करना पड़ता I ...... यहाँ समस्या ये थी कि कर्म में से फल को अलग करने का काम श्री कृष्ण के बस में भी नहीं है ...... कर्म में से फल को अलग करना कर्म करने वाले के हाथ में ही है अतः उसके लिए अर्जुन को ही गीता का ज्ञान देकर उसे तैयार किया I ...... आज हम सब पाप कर रहे हैं नाकि अधर्म इसलिए श्री कृष्ण पुनः अवतरित नहीं होने वाले हैं .....और पाप का फल क्या है.... ये बात पक्की समझ लीजिये .... I ...... Priyadarshan Shastri
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