जिस प्रकार एक महिला सलाइयों में ऊन के इक सिरे को लपेट कर एक निश्चित क्रम में पूरा का पूरा स्वेटर बुन देती है .... ठीक उसी प्रकार माँ के गर्भ में प्राणियों का शरीर भी बुनकर तैयार होता है I ....... जब स्वेटर बन जाता है तब हम पहनकर उसे वापरना आरम्भ कर देते हैं I निरंतर..... वापरने पर वह स्वेटर कमज़ोर एवं घिसने लगता है I उसी प्रकार प्राणी का शरीर भी धीरे धीरे कमज़ोर एवं ख़राब होने लगता है I ......स्वेटर सबसे ...पहले जहाँ से कमज़ोर हो जाता है वहीँ से वह उधड़ने लगता है I .... थोड़ी थोड़ी उधड़न रोज़ जारी रहती है ..... एक दिन वह स्वेटर पहनने के लायक नहीं रहता ...तब....उसे फैंक दिया जाता है .... बस ! यही मृत्यु है I ..... मनुष्य सहित सभी .....प्राणियों के शरीर के विभिन्न अंग भी ख़राब होकर अपना अपना काम करना बंद कर शरीर का साथ छोड़ने लगते हैं ......इसे मैं उधड़न कहता हूँ I .... .... ह्रदय के बन्द होने पर डॉक्टर जब किसी के बारे में मृत होना कहता है तब भी शरीर के बहुत से हिस्से एक समयावधि तक .... जिन्दा रहते हैं .... I .......उम्र हमारी नहीं हमारे अंगों की होती है I ......मृत्यु न कष्टप्रद है, न आत्मा का शरीर से जुदा होना है.. .....न उसका स्वर्ग जाना होता है न नर्क भुगतना होता है I
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