मिट्टी के बर्तनों में एक बर्तन होता है जिसे 'करवा' कहा जाता है जो छोटी मटकी या लोटे के समान होता है जिसमें एक ओर नली होती है जिससे पानी निकल सकता है। करवा चौथ जिसे व्रत कहा जाता है का आरंभ शायद कुम्हार जाति से हुआ होगा । बरसात के बाद नए बर्तनों को बनाने की शुरुआत इसी करवा को बना सूर्य, चन्द्र एवं धरती को जल का अर्पण कर के की जाती होगी । भारत एक ऐसा देश है जहां माटी के बर्तनों को बनाने एवं उनका उपयोग करने की परम्परा आज तक चली आ रही है। सिन्धुघाटी एवं आयड सभ्यता से निकले मिट्टी के बर्तनों के नमूने इस बात के प्रमाण हैं। अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग आकार एवं डिज़ाइन के बर्तनों का चलन आज भी है। सभ्यता के विकास के साथ ही इन बर्तनों को बनाने वाली जाति कुम्हार का भी उदय हुआ क्योंकि भारत में जातियों के विकास का एक मुख्य कारण निर्माण, हुनर एवं उद्योग तीनों रहा है। जो भी हो .... जहां तक मिट्टी से बर्तन बनाने की बात है बरसात के मौसम में यह पूर्ण रूप से बाधित रहता है । उत्तर भारत में खासकर बरसात एवं श्राद्धपक्ष के बाद नवरात्र से त्यौहारों की शुरुवात हो जाती है। बरसात जीवन में खुशियाँ के साथ कई प्रकार की मौसमी बीमारियों को भी लाती हैं। इसीलिए भारत में सालाना साफ सफ़ाई एवं रँग रोगन का समय भी नवरात्र से तय किया गया है जो दिवाली तक चलता है । इसी दौरान घर में तमाम मिट्टी से बने बर्तनों को भी बदला जाता है। ........ इसके लिए बक़ायदा कुम्हार को घर पर बुलाकर उसकी पूजाकर उसी के हाथों नए बर्तन घर में रखवाए जाते हैं । गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश यू पी आदि में गावों में आज भी यह परंपरा मौजूद है। त्यौहारों के अलावा हर मांगलिक कार्य में भी मिट्टी के नए बर्तनों के उपयोग की परम्परा है। ग्रहण एवं घर में किसी की मृत्यु के बाद सारे कर्म निपटने के बाद भी इन्हें बदला जाता है । हालाँकि वक़्त के साथ बहुत कुछ बदल गया । आज हम यूज़ एण्ड थ्रो के युग में हैं ...... जहां प्लास्टिक से बने सामान पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं ऐसे में लालू यादव जब रेल मंत्री थे तब उनका एक निर्णय याद आता है जिसमें उन्होने रेल्वे स्टेशन्स पर प्लास्टिक एवं थर्माकोल के ग्लास के बजाय कुल्हड़ को अनिवार्य कर दिया था ।
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