एक शहर में एक व्यक्ति के चार पुत्र रहते थे
| आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि मेहमानो को चटाई बिछा कर बिठाया जाता था, खिरी हुई किनारों के कप में चाय तथा एक-दूसरे के घरों से मांगी प्लेटों में
नाश्ता परोसा जाता था | कप तथा प्लेटों ने भी मेहमानों के समक्ष
अपनी पहचान बना ली थी | इतना सब कुछ होते हुए भी चारों का परिवार
खुशहाली एवं आत्मसंतुष्टि से परिपूर्ण था | सभी के घरों के दरवाजे
एकदूसरे के लिए हमेशा खुले रहते थे | जात-बिरादरी में उनकी एकता
का उदाहरण दिया जाता था | इसी एकता पर परिवारों के सभी सदस्यों
को थोड़ा-बहुत अहंकार भी था | धीरे-धीरे समय बदला | घरों में बच्चे बड़े हो गए | कमाने धमाने लगे | पैसा आने लगा | एक के घर का दरवाजा अब तक जो खुला रहता
था, बंद रहने लगा । घर में चटाई की जगह
एक महंगे सोफा ने ले ली थी | उन्हें डर था कहीं दूसरे घर के
‘नन्हें’ सोफा पर ब्लेड न मार दें | ज्यों ज्यों सभी के यहाँ आधुनिक सुविधाएं बढ़ने लगी,
घरों के दरवाजे अधिकतर बंद रहने लगे थे | अब मेहमानों के आने
पर नाश्ते की प्लेटों के मांगने का सिलसिला भी बंद हो चुका था | इस कहानी के लेखक हम एक दिन कहानी के एक पात्र के घर गये | महंगे सोफे पर बैठने के इशारे के साथ मेजबान ने घर का दरवाजा बंद कर दिया
| हमने दरवाजे के बंद करने का सबब पूछा तो वे बोले- “पड़ौसी के
बच्चे खामखाँ परेशान करते हैं |” तभी महंगी प्लेटों में नाश्ता
परोसा गया | हमें उन पुरानी प्लेटों की अचानक याद आ गई जिन्हें
हम अच्छी तरह से पहचानते थे | खैर उस वक़्त जिक्र करना मुनासिब
नहीं था | जब हम घर से निकलने लगे तो गलियारे के एक कोने में
पड़े पुराने कबाड़ पर निगाह गई | देखा वही पुरानी नाश्ते की प्लेटें, टूटी किनारों के कप एवं चटाइयाँ मानों हमें बाय बाय कर रहे थे |
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