लो साहब ! कठपुतली भी गजब की चीज़ है चलाने वाला अलग.…… खुद अलग। .…ज़माने को लगता है.… स्वयं चलाय मान है परन्तु डोर किसी और के हाथ में.…… आवाज़ किसी और की। चलाने वाला परदे के पीछे ....... अदृश्य।
कठपुतली को कभी ध्यान से देखा है ? बेजान सी…… हाथ-पैर डोर से बंधे हुए। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती। उसे तो उँगलियों के इशारों की आदत है।
अब जरा परदे के पीछे के मानुष को देखिये। उसके लिए कठपुतली चलाना एक तमाशा भर है। तमाशा भी बेमतलब का नहीं …… कुछ कमाना है। या कहूँ ……कि कमाना उसके लिए महज़ इक तमाशा है। उसे पता है कि कठपुतली जब तक ठुमके नहीं लगाएगी तब तक कुछ नहीं मिलेगा इसलिए हमेशा डोर खींच कर रखनीं पड़ती है। ………
एक बोला- "बेचारी कठपुतली- "ये कुछ करती क्यूँ नहीं ?"
हमने कहा- "ये कठपुतली है तभी तो कुछ नहीं करती।"……
"अरे भाई ! तनिक इसकी डोर तो खोल कर देखो।" .......
हमने कहा - "डोर के सहारे तो बेचारी चलती है डोर तोड़ी नहीं कि बेजान …… निढाल .......... फिर डिब्बे में बंद" ………खेल खत्त्तम पैसा हज़्ज़म ……
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