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Tuesday, April 8, 2014

कुश्ती

      एक गाँव में दो चिरप्रतिद्वंदी पहलवानों के बीच बरसों से कुश्ती का आयोजन होता था | लड़ने वाले पहलवानों में से कोई एक का जीतना तय था ये बात उन्हें समझ में आ चुकी थी इसलिए एक साल एक जीतता था तो दूसरे साल दूसरा। लोगों को उनकी कुश्ती देखने में कोई रूचि शेष नहीं थी। वे अब ऊब चुके थे परंतु कुश्ती देखना उनकी मजबूरी थी | बरसों से चली आ रही कुश्ती की नाटकीयता ने लोगो के मन में कूट कूट कर गुस्सा भर दिया था। गुस्सा इतना कि गर दोनों पहलवान कहीं मिल जाए तो सारा का सारा उन उंडेल दें परंतु पहलवान नामी-गिरामी होने के साथ लोगों की पंहुच से दूर थे।
       अब के बरस भी कुश्ती का आयोजन हो रहा था। इस बार लोगों में से कुछ सिरफिरे बाहें चढ़ाए, पहलवानों पर अपना गुस्सा उतारने की फ़िराक़ में थे। बस चाहिए था तो एक अदद मौका। मौका नहीं मिलने से वे कुण्ठा से परिपूर्ण यदाकदा हर किसी पर नकली मुक्का मार, तसल्ली कर लेते थे।
      अखाड़े के चहुँ ओर भीड़ जमा होने लगी। परम्परागत पहलवान मैदान में थे। रेफरी टुर्र टुर्र सीटी मार रहा था। कुश्ती आरम्भ होने को थी कुछ लोग बोरियत के कारण लम्बी लम्बी जम्हाई ले रहे थे। इतने में भीड़ में से एक आवाज आई - "अबकी बार मैं भी कुश्ती लडूंगा, मैं लोगों की बोरियत दूर करूँगा।" लोगों ने देखा अखाड़े के किनारे दुबला पतला अगरबत्ती छाप एक नौसीखिया पहलवान खड़ा. दोनों पहलवानों को चुनौती दे रहा है। उसकी ललकारने की आवाज सिरफिरों के कानों तक भी पहुँची। बस क्या देर थी, सिरफिरे बिना सोचे समझे टूट पड़े नौसीखिए पहलवान पर,  दुनिया भर के अपने गुस्से को उतारने। मानो बरसों से कूट कूट कर भरी गगरी फूट पड़ी हो। बेचारा वो नया पहलवान अपनी खता को समझ ही नहीं पाया। इस कथा का लेखक मैं भी एक तरफा खड़ा तमाशा देख रहा था। मुझे पता था जम्हाई लेती भीड़ कुश्ती देखने की सिर्फ रस्म अदा करने आई है। लहूलुहान हुए नौसीखिए पहलवान के पास जाकर मैंने पूछा- "भाई ! कौन हो तुम ? क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आये हो ? पहलवान बोला- "मेरा नाम अरविन्द केजरीवाल है। मैं भी इसी गांव का रहने वाला हूँ। कुश्ती लड़ कर लोगों के मन में बरसों से बसी बोरियत को दूर करना चाहता हूँ। बस इतनी सी चाहत है मेरी।"
        हमने कहा - "भाई ! छोड़ो ये सब। इस देश में जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं। इसी की बानगी है ये कुश्ती। 
  

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