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Sunday, March 23, 2014

जीवन-साथी

     
      अब आवश्यकता है जीवन साथी की। जीवन साथी अच्छा पति हो सकता है परन्तु एक पति अच्छा जीवन साथी हो जरुरी नहीं है। यही बात पत्नियों पर भी लागू होती है। ये विचार मेरे मन में विवाह जैसी व्यवस्था के प्रति युवाओं में बदलते नज़रिये को देख कर आए हैं। अपने आसपास पिछले दो तीन वर्षों में हुए कुछ विवाहों को टूटते देखा है।  सात जन्मों का बन्धन सात माह भी नहीं चला। आखिर ऐसा क्यों हुआ ? ये एक बड़ा सवाल है।
       हमारे देश में विवाह संस्कार व्यक्तिगत आवश्यकता की पूर्ति कम सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए अधिक माना गया है। दो नर नारियों को विवाह के बन्धन में बाँधने के लिए समाज एवं परिवार इकठ्ठा होता है। पण्डित मंत्रोच्चारण के साथ अग्नि के समक्ष नर नारी को सात जन्मों के बन्धन का पाठ पढ़ा देता है। इसी पाठ को पढने के बाद पारम्परिक सोच के अन्तर्गत नर पति का रूप धारण कर 'परमेश्वर' बन जाता है वहीँ नारी उसकी अर्धांगिनी। विवाह संस्कार में बंधने के बाद नारी के लिए अपने पति एवं गृहस्थी के बारे में सोचने के सिवा कुछ नहीं बचता है। पति तथा उसका परिवार चाहे जैसे भी हों ? उसे तो बस जीवन भर निभाना है। दूसरी तरफ नर के लिए हिदायत होती है कि वह अपनी पत्नी के प्रति जीवन भर ईमानदार रहेगा। इसी ईमानदारी के चलते वह वंश वृद्धि कर अपने माता पिता की सेवा करते हुए गृहस्थधर्म की पालना करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करेगा। बस यही हमारे देश में विवाह के बन्धन की सामाजिकता का निचोड़ है। मुझे इस निचोड़ में जीवन-साथी जैसा शब्द कहीं भटकता सा प्रतीत होता है। जीवन-साथी से मेरा अभिप्राय थोडा व्यापक अर्थों में है। जीवन साथी से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो आपके लक्ष्यों को हासिल करने में आपका साथ दे। आपके सुख एवं दुःख में साथ रह कर मन्जिल की राह में स्वेच्छा से हमसफ़र बना रहे। वैवाहिक बन्धन में बंधा व्यक्ति मेरी निगाह में पति या पत्नी कहा जा सकता है उसे जीवन साथी शब्द से पुकारना, शब्द को छोटा कर देना है।
        क्या हमारे देश में वाक़ई स्त्री एवं पुरुष विवाह जैसे परम्परावादी बन्धन में बन्धकर कम्फरटेबल हैं ? मेरी बात को थोडा यों समझिये- विवाह वास्तव में त्रिकोणीय व्यवस्था है। एक कोण पर नर है दूसरे पर नारी, तीसरे कोण पर पूरा समाज एवं परिवार खड़ा है जिसमें माता-पिता से लेकर खुद के बच्चे भी शामिल हैं। हमारे देश में शारीरिक कामनाओं की पूर्ति के लिए विवाह को गौण माना गया है।  विवाह का मुख्य उद्देश्य तीसरे कोण यानि समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। मेरा सवाल यहीं पर है कि क्या हमने दो नर नारी को विवाह में बांधकर वाकई सही मायने में सामाजिक लक्ष्य हांसिल कर लिया है ? वास्तव में नहीं।  हो ये रहा है कि परिवार में बच्चे बड़े हुए नहीं कि समाज निकल पड़ता है उन्हें विवाह के बंधन में बांधने के लिए। पूछो तो बस एक ही बात 'समाज की परम्परा तो निभानी पड़ेगी।' मैं अकसर युवाओं से उनके कॅरियर के बारे में पूछता हूँ तो चर्चा इस बात पर खत्म हो जाती है कि अब उनके लिए विवाह हेतु जीवनसाथी की तलाश आरम्भ हो गई है। एक सज्जन के विचार सुन बड़ा आश्चर्य हुआ "कि भाई बेटी वक़्त रहते खूँटे से बंध जाए तो अच्छा है।" ये है हक़ीक़त हमारी सोच की। ऐसे में नर नारी के चयन में गलतियाँ होने कि पूरी पूरी सम्भावनाएँ होती हैं। परिणामस्वरूप या तो विवाह टूट जाता है या नर नारी सात जन्मों के नाम पर घुटन भरी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाते हैं।
     जैसा कि मैंने कहा कि एक पति या पत्नी अच्छे जीवन-साथी साबित हों जरुरी नहीं है। "अरे ! हमारी क़िस्मत में तो यही लिखा था" "बस निभा रहे हैं" ये वो जुमले हैं जो अक़सर लोगों के मुख से सुनने को मिलते हैं। हमारे देश में विवाह ऊँट को बाँधने की काल्पनिक रस्सी जैसा हो गया है। ऊँट वाला ऊँट को एक काल्पनिक रस्सी से बाँधने का नाटक कर देता है ये नाटक इतना जादुई होता है कि भले आग लग जाए ऊँट उस बंधन को तोड़ कर नहीं भागता है। आज वो काल्पनिक बन्धन समझ में आने लगा है। युवाओं की सोच पति पत्नी के बजाय जीवनसाथी को खोजती सी प्रतीत होती है ऐसे में पारम्परिक विवाह उनके लिए डीजे एवं बैंड बाजों की धम्मड़ धम्मड़ के सिवाय कुछ भी नहीं है। अग्नि के समक्ष विवाह के सात वचन युवा पीढ़ी को सात जन्मों तक के लिए बांधने के लिए पर्याप्त नहीं है। विवाह के सात वचन मात्र पण्डित जी के सात जोक बन के रह गए हैं। आज बेटियाँ इन सात वचनों पर मिली घुटन भरी जिन्दगी को गर नकारती हैं तो मेरी निगाह में वे नादान नहीं समझदार हैं। 

1 comment:

  1. यहाँ आपने पति-पत्नि और जीवनसाथी में अंतर बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया है । ये तो वही वाली बात हो गई कि जिंदगी काटनी है या जीनी है ।अब बच्चे जिंदगी जीना चाहते हैं पहले लोग जिंदगी का टते थे।

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