हमारे देश में लोकतन्त्र है परन्तु यह मात्र संवैधानिक स्तर तक सीमित है। व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह रिश्तों और आपसी समव्यवहारों में उलझा हुआ है। बात कुछ अजीब है। जरा इसे इस नज़रिये से देखिये - लोकतन्त्र में संसदीय प्रणाली होती है। संसद जन प्रतिनिधियों से बनती है। लोकसभा को लीजिये। लोकसभा में वही जनप्रतिनिधि चुनकर आते हैं जिन्हें कोई राजनैतिक दल चुनाव में खड़ा कर देता है। सच्चाई ये है कि किसी भी दल की ओर से चुनाव में खड़े होने के लिए रिश्तों की पकड़ होना अत्यन्त जरुरी है। ऐसे में पार्टी मुखिया अपने घर का ही कोई बड़ा है तो सोने पर सुहागा। लालू यादव इसके अच्छे उदाहरण हैं। वे स्वयं उनकी पत्नी राबड़ी देवी एवं पुत्री, एक परिवार से तीन सदस्य चुनाव लड़ेंगे। शुक्र है कि उनके परिवार में आवश्यक बहुमत जितने सदस्य नहीं हैं। इसी प्रकार से आपको सभी दलों के राजनेताओं के पुत्र - पुत्रियां, दामाद भाई, बहन पीढ़ी दर पीढ़ी लोकसभा के सदस्य बनते दिखाई देंगे। काँग्रेस का तो कहना ही क्या। एक ही परिवार के भरोसे पर है। कहने को जनप्रतिधि जनता के होते हैं परन्तु लोकसभा में जाने के बाद वे बड़े बड़े कॉरपोरेट घरानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। नरेद्र मोदी प्रधान मन्त्री बनेँ ये अच्छी बात है परन्तु उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय रेल कहीं "रिलायन्स रेल" न हो जाए इस बात का डर है। देश को चलाना माना कि एक चुनौती है परन्तु देश चंद लोगों के रिश्तों के बन्धन में चले ये लोकतन्त्र नहीं ये एकतन्त्र ही है ……।
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