आख़िरकार अरविन्द केजरीवाल को इस्तीफा देना पड़ा। ये तो होना ही था। खैर एक कहानी ज़ेहन में आ गई। चार -पाँच चोर कहीं से तिज़ोरी चुरा लाए। देर रात चोरी करने से चोर थके हुए थे इसलिए एक पेड़ के नीचे उन्हें नींद आ गई। उसी समय एक बन्दर की टोली वहाँ आ पहुँची। तिज़ोरी में खाने की सामग्री समझ वे उसे इधर उधर पटकने लगे। पटकने की आवाज सुन कई लोग चारो ओर जमा हो गए। तिज़ोरी की आवाज सुन चोर भी जाग गए। चोरों के सामने एक मुश्किल थी। वे लोगों के समक्ष अपने आपको चोर नहीं कह सकते थे। दूसरी परेशानी ये थी कि गर तिज़ोरी टूट गई तो अंदर के सारे जर-ज़ेवरात बिखर जाएंगे तिस पर एक चिन्ता और थी कि लोग उन जेवरों को पहचान लेंगे क्योंकि ये वही जेवर थे जिन्हें लोगों ने सेठ के यहाँ गिरवी रख कर क़र्ज़ ले रखा था। तिज़ोरी के पटकने के क्रम ने चोरों के मन में सारी पोल के खुल जाने का भय पैदा कर दिया था। बन्दरों को चोरों के भय से क्या लेना देना। वे तो बस पटके ही जा रहे थे। लोगों को भी आनन्द आ रहा था। बन्दरों को रोकने के लिए चोर मन ही मन जुगत लगाने लगे परन्तु कोई तरक़ीब काम न आई। इतने में बन्दरों के मन में न जाने क्या आया वे उस तिज़ोरी को छोड़ वहाँ से चले गए। बन्दर छोड़ कर जाएंगे ये तो तय था परन्तु तिज़ोरी न तोड़ दें ये डर था। अचानक हुए इस परिवर्तन को देख चोरों के मुँह से राहत की एक लम्बी साँस इतनी जोर से छूटी कि उसकी गूंज सारे वातावरण में सुनाई दी। बंदरो का आना, तिजोरी का पटकना एवं बंदरों का चले जाना लोगों के लिए बस एक तमाशा था। उन्हें तो ये भी पता न था कि तिजोरी में उन्हीं के जेवरात रखे हैं। लोग चले गए। चोरों को फिर से सहीसलामत तिज़ोरी मिल गई।
खैर पिछले दिनों दिल्ली में जो कुछ हुआ उसमें इस कहानी के पात्रों से तुलना करना मेरा मन्तव्य बिलकुल भी नहीं है। तुलना सिर्फ घटनाक्रम की है। आज सवाल अरविन्द केजरीवाल के आने एवं सत्ता छोड़कर चले जाने का नहीं है। सवाल तो अरविन्द के चले जाने पर ली गई राहत की उन लम्बी साँसों का है का जिनकी गूंज अब सुनाई दे रही है। धन्यवाद।
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