काम- क्रोध- लोभ- मोह, इसी का नाम तो पुरुष है। इन पर विजयी व्यक्ति योगी एवं संत बन जाता है। इन चारों से निरपेक्ष, सच्चा "पुरुष" हो ही नहीं सकता। ये 'काम' ही तो है जिससे इस संसार में प्राणी जगत के अस्तित्व की निरन्तरता है। ये क्रोध ही था जिसकी अगन में 'काम' शिव के हाथों जलकर भस्म हुआ था। लोभ अधिक से अधिक संचय की प्रेरणा देता है तो मोह सबको आपस में बांधे रखता है। अति सबकी बुरी होती है। इसीलिए इन पर विजयी होना पड़ता है परन्तु इनका त्याग पुरुषत्व का त्याग है। ये चारों आपस में एक दूसरे के पोषक भी हैं तो एक दूसरे की काट भी, कैसे ? काम-क्रोध-लोभ एवं मोह चारों मिल जाएं तो पुरुष की हालत ठीक उसी तरह की हो जाती है जैसे कि आजकल एक तथाकथित 'संत' की हो रही है। अब रही बात काट की तो देखिये- काम क्रोध को प्रेम में बदल देता है। अति प्रेम मोह को पैदा करता है तो लोभ का भाव प्रतियोगी होने से ईर्ष्या का जनक है। ईर्ष्या आपस के मोह को कम करती है। इधर मोह क्रोध पर लगाम का काम करता है। जिसके प्रति मोह होता है उसके प्रति क्रोध भी सीमित मात्र में होता है।
पुरुष को काम- क्रोध- लोभ- मोह पर विजयी होना पड़ता है जबकि स्त्रियाँ जन्मजात विजयी होती हैं।पुरुष में चारों की संयमित उपस्थिति संसार को चलाती है। जबकि अधि
कता पतन का कारण बनती है। खैर जो भी हो बड़ी लम्बी कथा है। ……धन्यवाद। -प्रियदर्शन शास्त्री
पुरुष को काम- क्रोध- लोभ- मोह पर विजयी होना पड़ता है जबकि स्त्रियाँ जन्मजात विजयी होती हैं।पुरुष में चारों की संयमित उपस्थिति संसार को चलाती है। जबकि अधि
कता पतन का कारण बनती है। खैर जो भी हो बड़ी लम्बी कथा है। ……धन्यवाद। -प्रियदर्शन शास्त्री
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