आज हम और हमारी सोच परम्पराओं, मान-प्रतिष्ठा एवं बरबादी के भय की जकड़न में जकड़ी हुई है। हम जो करना चाहते हैं वो कर नहीं सकते। आपका युवा बालक नया कुछ करने की सोचेगा भी तो आप उसे परम्परा, मान-प्रतिष्ठा तथा बरबादी का डर बता कर रोक देंगे। यदि कोई नया कुछ करता भी है तो समाज गोल घेरा डाले उसके चहुँ ओर खड़ा हो जाता है तमाशबीन की तरह, उसे बस एक मौके की तलाश होती है "नए" पर हँसने के लिए। मैंने देखा है परम्पराओं पर वे ही चला करते हैं जिनमें नया कुछ करने की हिम्मत नहीं होती है। वे नहीं चाहते हैं कि उनके आसपास का कोई दूसरा नया कुछ कर उनसे आगे निकल जाए। बस यही इर्ष्या का भाव लिए परम्परावादी लोग हाथ में लठ्ठ लिए खड़े होते परमपरा की पालना करवाने के लिए। ये कड़वा सच है। हाल ही में बस द्वारा मध्यप्रदेश के एक गाँव से गुजरना हुआ। खुली जगह, चिलचिलाती धूप, खाद के खाली थैलों को सिलकर बनाए, चार बाँस पर ताने शामियाने के नीचे बैठी महिलाएं किसी विवाह समारोह में "बन्ने" गा रही थीं। मन में सवाल आया कि क्या ये सब होना इतना अनिवार्य है ? गाँव के लोगों की आर्थिक स्थिति का बखान नहीं कर रहा हूँ। गाँव एवं महानगर में बस वातानुकूलित शामियाने का फर्क है। यहाँ से लेकर वहाँ तक बस एक ही सोच पसरी हुई है। "हमारे खानदान की इज्जत मिटटी में मिला दी इसने"...... हमने पूछा- भाई हुआ क्या है? "अरे भाई साहब घोड़ी ही नहीं लाए अब दूल्हा बारात कैसे ले जाएगा?" हमने कहा- "ये है तो सही।"..... "अरे ये घोड़ी नहीं घोडा है .... घोड़ी को जो काबू में कर ले वो मरद होता है इसलिए दुल्हे को घोड़ी पर ही बैठना होता है" एक बड़े बुजुर्ग ने अपने ज्ञान का परिचय दिया। हमने कहा - "घोडे से ही काम चला लीजिये।" बड़े बुजुर्ग हमसे चिढ गए बोले - "देखो बबुआ ! हम हमारे पिताजी एवं पिताजी के भी पिताजी सभी घोड़ी पर बैठ कर बारात लेकर गए थे और तुम कहाँ की बात कर रहे हो अभिषेक बच्चनवा भी तो घोड़ी पर ही बैठ कर ऐश्वर्या को परण (विवाह) कर लाया था तब तुम कहाँ थे ? हमसे तर्क न करो।" हम सब कुछ सुन रहे थे। लग रहा था हमारी सोच पर कब जकडनों की जंजीर टूटेगी ? कब व्यक्ति खुद के किये पर गर्व कर सकेगा ? धन्यवाद।
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