
आईये एक परिकल्पना करते हैं, एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचते हैं जिसने कभी अपने आपको आईने में देखा ही न हो। ऐसे में वह खुद को कभी पहचान नहीं पाएगा। वह केवल दूसरों को देखकर तुलना मात्र करेगा कि वह खुद भी सामने वाले जैसा ही दिखता है। वह स्वयं के बारे में सही सही आकलन नहीं कर पाएगा। वह हमेशा दूसरों में अपने आप को खोजता रहेगा। दूसरों में अपने आपको खोजना फिर उसमें खुद को पा जाना ही "स्वयं को जानना है।" ऐसा जानना ही असल ज्ञान है जो अहम् से परे होता है। एक गाय को पता है कि दूसरी गाय भी उसके जैसी ही दिखाती है, नया उसमें कुछ भी नहीं है। यही सम्पूर्णता है। गाय इससे अधिक जानने का टेन्शन नहीं लेती है इसीलिए वह पूर्ण है। उसे पता है कि धरती पर उसका जन्म कैसे हुआ है इसलिये वह मात्र प्रकृति द्वारा निर्धारित कर्म करती है इससे आगे कुछ नहीं। गाय से मेरा मतलब मनुष्य को छोड़ बाकी सभी प्राणियों से है। ठीक इसके विपरीत मानव में खुद को जानने की जिज्ञासा सदा बनी रहती है। स्वयं को जानने की पिपासा होना अच्छी बात है। इसी से आध्यात्म का जन्म हुआ है परन्तु आईने में देख अपने आप को सम्पूर्ण मान लेना अहम् एवं अज्ञानता है। यदि मनुष्य अपने आप को श्रेष्ठ मानता है तो ये उसका अहम् है। ये अहम् उसे प्राचीन समय में जब आईने का अविष्कार नहीं हुआ होगा तब सरोवर के पानी में अपने अक्स को देख कर शायद हुआ होगा। धन्यवाद।
-प्रियदर्शन शास्त्री
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