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Sunday, March 3, 2013

रोजगारोन्मुख विकास

     हम रोजगारोन्मुख विकास की ओर अग्रसर हैं परन्तु इस विकास की एक कडवी सच्चाई ये भी है कि हमने नए आविष्कार न कर रोजमर्रा के जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं के उत्पादन में बड़े बड़े इन्वेस्टर्स एवं कम्पनियों को उतार कर उन्हें खामखा महँगा बना दिया है। एक साधारण सी वस्तु लीजिये पेन्सिल। मुझे नहीं लगता है कि इसके उत्पादन में ज्यादा लागत आती होगी। क्या शिक्षा मंत्री को पता है कि हमारे देश में कम से कम ३५/- रूपये में दस पेन्सिल का एक पैकेट मिलता है। हमें पेट्रोल की बढ़ती क़ीमत तो दिखाई देती है पर घर में एक बालक तीन से चार दिन में एक पेन्सिल का पैकेट खर्च कर देता है यानि महीने के २४५/- नज़र नहीं आते। कहने का तात्पर्य है कि शिक्षा में हमने विकास तो किया परन्तु उसे उपभोक्तावादी बनाकर उसमें अधिक से अधिक 'कन्ज्यूमेबल' आइटम्स की खपत को बढ़ावा दिया है इससे पेंसिलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी तो हो गई, एक के बजाय दस और नई कम्पनियाँ खुल गईं, लोगों को रोज़गार मिल गया परन्तु ज्ञान अर्जन की रीतिनीति कहीं पिछड़ गई। इसी प्रकार आप अपने घर में झांकिए आपको ऐसे कई उत्पाद मिलेंगे जिन्हें बनाने में हींग लगे न फिटकरी वाली कहावत चरितार्थ होती है परन्तु उन्हें बनाने वाली कम्पनियाँ उन्हें महँगा बेच कर बड़ा मुनाफा कमा रहीं हैं। बेहतर होता यदि रोजाना काम में आने वाली वस्तुएँ कुटीर उद्योगों के जरिये बन कर देश के सामने आती। आज देश के नागरिक की जेब पर पेट्रोल के आलावा कई और भी भार हैं जो रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते हैं जो अत्यधिक महंगे हैं। आम जीवन इन छोटी-छोटी बातों से  परेशान है। -प्रियदर्शन शास्त्री   

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