हमारी सोच में शंकाओं का कोई स्थान नहीं है। शंकाएँ घर बरबाद कर देती हैं। एक सज्जन मिले, बोले - भाई साहब ये "लघुशंका" और "दीर्घशंका" क्या होती है। हमें आश्चर्य हुआ हमने उनकी तरफ देखा और पूछा- आपकी उम्र कितनी है ? उन्होंने कहा -क्यों ? लघुशंका एवं दीर्घ शंका का सम्बन्ध उम्र से है क्या ?...... नहीं। उम्र से नहीं युगों से है। हमने सज्जन को बताया। सज्जन फिर भी प्रश्न भरी निगाह से हमें ताक रहे थे। लगा कि विस्तार से समझाने की आवश्यकता है।.......देखिये जनाब ! पहले तो आप ये समझ लीजिये कि लघुशंका एवं दीर्घशंका शंका नहीं है ये प्रवृत्ती है। शंकाएँ क्षणिक होती हैं परन्तु प्रवृत्तियाँ जन्म जन्मजन्मान्तरों तक चलती हैं। अब इन दोनों शंकाओं को ही लीजिये ये तब से चली आ रही हैं जब से मनुष्य इस धरा पर आया।..... सज्जन हमारी बात को बड़े गौर से सुन रहे थे। हमने आगे बात बढाई - लघु शंकाएँ दीवारों पर की जाती हैं जबकि दीर्घ शंकाएँ जमीं पर। एक सवाल पुरातत्त्व विदों से हमने भी किया था वे भी अनुत्तरित थे। जब दीवारें नहीं हुआ करती थीं अर्थात मनुष्य कंदराओं में रहता था तब लघुशंकाएँ कहाँ की जाती थीं ? आज जब इतना विकास कर लेने के बाद भी दीवारों पर लघु शंका करने की हमारी प्रवृत्ति में कोई बदलाव नहीं आया है तो हो नहीं सकता कि आदिम युग में कन्दराओं की दीवारें कोरी रह गई हों। अब विचारणीय बिंदु ये है कि पाषाण युगीन कन्दराओं में मानव निर्मित भित्तिचित्र तो मिले हैं परन्तु लाघुशंकाओं के रेले क्यों नहीं ? मुझे तो पुरातत्वज्ञों की खोज पर ही शंका हो रही है। चलो माना कि दीर्घ शंकाएँ तो जमीं पर होती हैं इसलिए नाशवान है, कुछ समय बाद कालकवलित हो जाती हैं परन्तु लाघुशंकाओं के दाग तो जन्म जन्मान्तरों तक नहीं मिटते हैं बस इतना समझ लीजिये कि ये घर बरबाद कर देते हैं .........धन्यवाद।
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