
तुम रहो परिभाषाओं के बीच
मैं अपरिभाषित ही सही।
क्या धरा है इन शब्दों में,
जो खुद क़तारों में खड़े हैं
लकीरों के सहारों पर।
मिटी लकीरें, दिशा हीन बिखरे
शब्दों को समेटे खड़े तुम,
बखूबी जानते हो,
कब तक पहचाने जाओगे,
मुझे देखो मैं अपरिभाषित, निश्शब्द,
किसी पहचान का मोहताज़ नहीं
न ही कोई जानता मुझे .......प्रियदर्शन शास्त्री
No comments:
Post a Comment