हिन्दू विवाह रीति अनुसार विवाह में बेटी का कन्यादान किया जाता है। मान्यता अनुसार जीवन में एक कन्यादान कई सौ पुण्यों के बराबर होता है। दूसरी रस्म है बेटी की विदाई। यानी बिटिया के लिए पिता के बजाय अब पति का घर ही उसका अंतिम ठौर है। दोनों रस्में परिपाटी अनुसार करीब करीब हर विवाह में निभाई जाती हैं परंतु आज जब जमाना तेज़ी से बदल गया है, हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में अत्यंत बदलाव आया है ऐसे में सवाल मन में आता है कि क्या हमारी बिटियाएँ दान की "वस्तु" है ? क्या बिटिया को अपने पिता के घर से विदा कर देना चाहिए ? मुझे दोनों रस्में अब अनावश्यक लगाती हैं । एक समय था जब हमारे देश में महिलाओं की स्थिति आज के मुकाबले उतनी अच्छी नहीं थी। तब एक पिता दान के रूप में अपनी कन्या को दुसरे पुरुष को पत्नि के रूप में सुपुर्द कर महिला की सुरक्षा को सुनिश्चित कर देता था। हमारी मान्यताओं में दान का अत्यंत महत्व है इसलिए कन्या की सुपुर्दगी को दान के रूप में मंडित की गई। दान का कोई महत्त्व नहीं रह गया है, दान को मजाक के रूप में लिया जाता है। अतः विवाह में कन्या के दान की रस्म को निभाना मुझे अब औचित्यहीन लगता है । अब बात आती है बिदाई की रस्म की। एक समय था जब पिता अपनी बेटी के घर का पानी भी नहीं पीता था परन्तु आज कई बेटियां अपने माता पिता का आर्थिक सहारा बनी हुई हैं ऐसे में बेटी की बिदाई क्यों ? उक्त दोनों रस्में पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था की द्योतक हैं। समाज पुरुष प्रधान होने के साथ साथ महिला प्रधान भी होता जा रहा है अतः कैसी विदाई और कैसा दान। धन्यवाद।

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