कसाब का अंत हो गया। कानून ने अपना काम कर दिया। ज़ेहन में सवाल बहुत हैं। हमारे देश में एक तरफ कानून का राज है, तो दूसरी तरफ राजनीति खड़ी है, इधर जनता है तो एक और अपराध एवं अपराधी। अजब गणित है। इस गणित में कौन किसके साथ है विचारणीय है। जनता की सोच है कि देश अपराधमुक्त हो, चहुँ ओर सुरक्षा का वातावरण हो और आम नागरिक निर्भीक हो कर अपना कार्य कर सकें। जनता की इस सोच में कहीं कोई संदेह नहीं है। इसी सोच को पुष्ट करता है देश का कानून एवं न्यायपालिका। हालाँकि कानून की चाल धीमी जरुर है परन्तु जनता की सोच के अनुरूप है। कानून ने न्यायपालिका के माध्यम से कई बार देश में अपनी उपस्थिति भी दर्शाई है। अब बात करते हैं राजनीति एवं अपराध की। पहले बात करते हैं राजनीति की। राजनीति सेवाधर्म होती है परन्तु व्यावहारिकता में इसका अंतिम लक्ष्य सत्ता प्राप्ति ही है। सत्ता तक पहुँचने के कई रास्ते हैं उनमे से एक गली अपराध एवं बाहुबल के मध्य से होकर गुजराती है। जब सत्ता हथियाना ही अंतिम लक्ष्य हो तो गली कैसी भी हो एक राजनेता एवं राजनितिक दल को उससे गुज़र जाने में कोई परहेज़ नहीं होता है। ये हम पिछले दशकों में देश की राजनीति में देख चुके हैं। देश में एक और वे राजनेता हैं जो सत्ता में रहते आर्थिक अपराधों में लिप्त हैं दूसरी और खुले आम घूमते अपराधी हैं जो हत्या या लूटपाट को अंजाम देते हैं, दोनों देश में अविश्वास एवं देहशतगर्दी फैला रहे हैं। सत्ता पाने का चुनावी खेल एवं धनबल, राजनेताओं एवं अपराधियों को करीब ला देता है। इस परिदृश्य में अपराध एवं राजनीति एक साथ खड़े दीखते हैं। मैं ये क़तई नहीं कहता कि देश की पूरी राजनीति अपराध एवं भ्रष्टचार के भरोसे खड़ी है परन्तु जब बात अपराधियों को सजा देने की आती है तब आर्थिक घोटालों के बोझ तले दबी सरकार एवं अपराध बोध से ग्रसित उसके राजनेताओं की इच्छा शक्ति कहीं डगमगाने लगाती है। यही डगमगाती इच्छाशक्ति हमें कसाब के मामले में भी देखने को मिली। कसाब तो पराए देश का था उसे तो फांसी दे दी। क्या सरकार उन अपराधियों को सजा दिलवा पाएगी जो सत्ता में बैठे हैं या सत्ता की शह पर अपराध कर रहे हैं ? एक बड़ा सवाल है जो कसाब को फांसी देने के बाद देश के हर नागरिक के ज़ेहन को साल रहा है। धन्यवाद ।
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