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Sunday, October 14, 2012

जीवन की भूमिकाएं

     कुछ दिन पहले मित्र के पिताजी से गाँव में मिलना हुआ। वे लगभग ६५ से ७० बरस की उम्र के हैं | पहुँचने पर देखा, दो चार नन्हे बच्चों के बीच बैठे बतिया रहे थे। उनके हालचाल पूछे तो वे बोले- "दादाजी हैं इसलिए दादा का रोल निभाने में मज़ा आ रहा है। नाती-पोतों के बीच इंजोय कर रहे हैं।" इसके अलावा वे क्या करते हैं, के बारे जानना चाहा तो वे बोले - "करना क्या है? जीवन में बहुत कुछ किया, बहुत कुछ नहीं भी किया परंतु समय बदल गया रोल बदल गया। अब जो रोल मिला है उसी को अच्छी तरह निभा कर जीवन का आनंद ले रहे हैं।" उनको देख कर मन में विचार आया कि मानव जीवन अलग अलग भूमिकाओं में बँटा हुआ है। इसी बात को शेक्सपीअर ने भी अपनी कविता The seven ages of man में बड़ी सुन्दरता से उद्धृत किया है। 
    सवाल जीवन की बँटावट का नहीं है, सवाल उपयुक्त उम्र के साथ सही रोल निभाने का है। आज देश का प्रत्येक व्यक्ति गैस सिलेंडर एवं पेट्रोल की कीमत के आगे कुछ सोच नहीं पा रहा है ये बात सोलह आने सच है। तो क्या इन कठिन परिस्थितियों के कारण एक आम आदमी अपने जीवन की महत्वपूर्ण भूमिकाओं को दरकिनार कर दे ? एक बात। दूसरी बात- "कहीं इन भूमिकाओं को मन में दबी लालसाओं के कारण बदल पाने में हिचकिचाहट तो महसूस नहीं हो रही है ? एक सज्जन हैं, वे 60 बरस से अधिक के हैं। वे बाल रंग-चन्ग कर अपने आप को जवाँ बताने की कोशिश करते रहते हैं। हमने उनसे कहा कि अंकल ! अब तो आप दादा की उम्र के हो गए हैं ज़रा अपने नाती-पोतों के साथ समय बिताइए ! हमारी बात पर वो चिढ़ गए बोले - "हम बुड्ढे थोड़े ना हो गए हैं, अभी तो जवाँ हैं हमारे खुद की खाने खेलने की उम्र बाक़ी है।" हमें लगा कि ये सज्जन शायद ग़लत उम्र के साथ ग़लत रोल निभा रहे हैं।हालाँकि वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में काम बड़े होते हैं और व्यक्ति की उम्र छोटी पड़ जाती है, ऐसे में कई कार्य अधूरे रह जाते हैं। मंज़िल पाने से पहले ही भूमिका में बदलाव आने लगता है। तो क्या बिना मंज़िल पाए ही काम अधुरा छोड़ व्यक्ति अपनी भूमिका बदल दे ? नहीं मेरा मतलब ये क़तई नहीं है। इसका एक आसान उपाय है। जीवन की भूमिका बदलने का जब वक्त आरम्भ होने लगता है तब अपने अधूरे कामों को पूरा करने के लिए अगली पीढ़ी को जोड़ना आरम्भ कर देना चाहिए। अगली पीढ़ी को अपना अनुभव देकर उसे मंजिल पाने योग्य बनने देना चाहिए यही व्यक्क्ति का असल सुख है। यदि सुखी रहना है तो उम्र के साथ अपनी भूमिका तो बदलनी ही पड़ेगी वरना आने वाली पीढ़ी कौन दादा-दादी होते है, कौन नाना-नानी, रिश्तों को पहचान ही नहीं पाएगी। धन्यवाद।   -प्रियदर्शन शास्त्री 

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