एक उक्ति आप सब ने सुनी होगी "चवन्नि छाप लोग।" बहुत ही कम लोग खास कर नई पीढ़ी के तो बिल्कुल ही नहीं जानते होंगे कि ये कौनसी किस्म के लोग है। एक समय अर्थात लगभग ४०-४५ बरस या उससे भी पूर्व हमारे देश में संभ्रांत परिवारों में फिल्में देखना तो दूर जुबाँ पर नाम तक लेना निम्नस्तर का कार्य समझा जाता था। धीरे धीरे समय आगे बढ़ा, कुछ पीढ़ी भी बदली इसके साथ फिल्में देखने का चलन भी बदला। एक बात मैं स्पष्ट कर दूं, यहाँ बात फिल्मों के विकास की नहीं हो रही है, बात मैं दर्शकों की मानसिकता की कर रहा हूँ। खैर, पुराने समय में दर्शक जब नाटक-नौटंकी आदि देखने जाते थे तो किसी अच्छे संवाद या सीन पर वाह वाह करने के साथ अपनी जेब से एक आना, दो आना या चवन्नि निकाल कर हीरो- हीरोइन पर उछाल दिया करते थे | ये उछाले गए सिक्के उन नाटक कर्ताओं के लिए प्रशंसा भी थे तो ये आमदानी का ज़रिया भी। सिक्के उछालने का कार्य हर कोई नहीं करता था। ये वे दर्शक होते थे जो या तो नाटक के दृश्य में अपने आपको पूर्ण रूप से तल्लीन कर लेते थे या नायिका की सुंदरता से प्रेरित हो कर सिक्के उछालने का कार्य करते थे। एक और बात ये कार्य ज़्यादातर आगे की दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों के द्वारा किया जाता था। नाटककारों को एक कलाकार माना जा कर उन्हें समाज की मुख्य धारा से अलग माना जाता था। नाटक में कार्य करना प्रतिष्ठाजनक नहीं कहा जाता था | धीरे-धीरे नाटक- नौटंकी का जमाना फिल्मों के कारण तेज़ी से चला गया परंतु दर्शकों की मानसिकता में उतनी तेज़ी से बदलाव नहीं आया। सन ७० के दशक तक सिनेमा हाल में परदे की और दर्शक सिक्के उछाल दिया करते थे। सिक्के उछालना अच्छे लोगों का काम नहीं माना जाता था | इसी सिक्के उछालने की प्रवृति के कारण "चवन्नि छाप लोग" उक्ति का चलन आया।
आज जमाना बदल गया है न चवन्नी बची है न चवन्नी छाप लोग। परन्तु हमारी मानसिकता शायद वहीँ अटकी हुई है आजकल फेसबुक के उपयोग को टाईमपास मन जाता है।
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