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Saturday, September 8, 2012

"लड़ाई"


          भाजपा का कहना है कि कोयले की लड़ाई अब संसद के बाहर लड़ी जाएगी | संसदीय परंपरा में हर मुद्दे की लड़ाई संसद के अन्दर लड़ी जाती है | यहाँ लड़ाई को "संसद से बाहर लड़ने" की बात कही गई है | इस बात से कुछ सवाल पैदा होते हैं- १. कि क्या हर मुद्दे को संसद के अंदर उठाए जाने के योग्य माना जाए ? २- क्या कोयले या अन्य घोटालों की लड़ाई संसद के अंदर लडी जाने योग्य नहीं है | ३- घोटालों की लड़ाई यदि संसद के अंदर लड़ने जैसी है तो क्या संसद, अब ऐसी लड़ाई के लिए उपयुक्त स्थान नही रहा ? ये चंद सवाल हैं जिनका जवाब खोजने की कोशिश करते हैं ।
         हमारे देश में जनता का राज है | राज को चलाने के लिए प्राधिनिधि चुने जाते हैं | ऐसे प्राधिनिधियों को अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए एक स्थान दिया गया है जिसे हम संसद कहते हैं | संसद की अपनी मर्यादाएं होती हैं। संसद वो स्थान है जहाँ बैठकर कार्यकारिणी या सरकार द्वारा किये गए कार्यों की समीक्षा की जाती है । संसद में बैठकर कार्य करने का अधिकार केवल जनता के प्राधिनिधियों को ही है | सरलतम भाषा में कहें तो संसद के माध्यम से वे सब कार्य किये जाते हैं जिसके लिए उन्हें जनता ने अपना प्रधिनिधि चुना है | लोकतंत्र में जनता जब एक व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनती है तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व दोहरा हो जाता है अर्थात एक उसका अपना निजी व्यक्तित्व, दूसरा जनता के प्रधिनिधि की हैसियत का व्यक्तित्व। इन्हीं दो के मध्य उलझे हैं हमारे मसले । हम यहाँ केवल जनता के प्रधिनिधियों की ही बात कर रहे हैं । क्या जनता से अधिकार प्राप्त कर घोटाले करना प्रतिनिधित्व हैसियत का हिस्सा है ? क्या उस क्षेत्र की जनता के कहने पर घोटाले किए जाते हैं जिसने उसको चुनकर भेजा है ? बेशक़ आप सब का एक ही उत्तर होगा "नहीं"। इसका कारण है । घोटाले करना एवं अपने पद तथा अधिकार का अनुचित फायदा उठाना ये सब निजी व्यक्तित्व का हिस्सा हैं । संसद में उन्हीं कार्यों की समीक्षा की जाती है जो प्रतिनिधि हैसियत के हैं। इसको यों समझिये कि एक प्रतिनिधि भ्रष्ट हो जाए और वह अपनी हैसियत का अनुचित लाभ उठाकर निजी फायदा उठा ले तो यहाँ मामला जाँच एवं क़ानूनी कार्यवाही का बनता है न कि संसद में चर्चा का। मेरी राय में कोयला घोटाले पर चर्चा में समय बरबाद न करके इसमें शामिल लोगों की पहचान कर सीधी क़ानूनी कार्यवाही होनी चाहिए। कहने का मतलब है कि किसी एक सदस्य ने या सदस्यों के एक ग्रुप ने यदि कोई कार्य निजी फायदे के लिए किया है तो उस पर संसद में चर्चा करना मेरी राय में अपर्याप्त है क्योकि मामला सीधा क़ानूनी कार्यवाही का बनता है। माना कि जनतंत्र में हर लड़ाई संसद के अन्दर लड़ी जाने का प्रावधान है परन्तु जब लड़ाई किसी के भ्रष्ट होने की है, जब किसी की विश्वसनीयता की है, बात देश में उपलब्ध संसाधनों के दुरुपयोग की है, बात सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार की है तब केवल संसद में बैठ कर सही गलत तय नहीं किया जा सकता है। आज जब चारों ओर परिस्थियाँ बदल चुकी हैं, देश सूचना क्रांति के दौर से  गुजर रहा है ऐसे में जनता को शामिल कर तथा जनता के मध्य जाकर ही सही या गलत पहचाना जा सकता है। धन्यवाद ।

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