विश्वास और अंधविश्वास | विश्वास के समय आँखें खुली होती हैं जबकि अंधविश्वास के समय आँखें बंद रहती हैं | विश्वास कार्य के 'होने' की डगर पर चलता है | होता हुआ काम आपको 'विश्वास होने' का अहसास दिलाता है | जब कार्य पूर्ण हो जाता है तब आप गर्व से कहते है- हाँ ! मुझे विश्वास था | आपके अंदर की इच्छा आपको कार्य के 'होने' की राह पर चलने की निरंतर प्रेरणा देती रहती है | एक दिन आप चलते-चलते सफल हो जाते है | आप, आपके अंदर की इच्छा, आपका प्रयास एवं 'होता हुआ' कार्य ये सब विश्वास की जड़ें हैं |
अब आइए बात करते हैं अंधविश्वास की | आप भी हैं, आपके अंदर की इच्छा भी है, सतत प्रयास भी है और कार्य भी है परंतु कार्य के 'होने' में बाधाएँ हैं | बाधाओं को देख कर आपके अंदर की इच्छा और अधिक प्रबल हो जाती है, आपका विश्वास और बढ़ जाता है, आप बाधाओं से लड़ने लगते हैं, अधिक प्रयास करने लगते है फिर भी........ कार्य 'होने' की राह पर एक कदम आगे नहीं बढ़ पाता है | आप अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देते हैं.... स्थिति वहीं की वहीं, जस की तस | आप चाहते हैं कि कैसे भी हो कार्य पूर्ण हो जाए | परंतु कार्य पूर्ण नही होता है | आपका विश्वास टूट जाता है, आप निराश हैं | आप सोचते हैं कि मैं था, प्रयास था, आँखे खुली थीं, विश्वास था दृढ़ इच्छा भी थी, सब कुछ तो था फिर भी....| आपका दिमाग़ लौट जाने को कहता है परंतु आपके अंदर की इच्छा अभी भी आपको अंदर ही अंदर कह रही होती है कि एक बार फिर आगे बढ़ जा आँखें बंद करके ! अचानक आप अपनी आँखें बंद कर लेते हैं एक बार फिर से, कार्य के 'होने' की राह पर चल पड़ने के लिए । इस बार खुली आखों से नहीं बंद आँखों से आप प्रयास करने लगते हैं; इस बार आपको विश्वास नहीं है फिर भी कार्य को करने में आप जी जान से लगे हैं - बस ! इसी को अंधविश्वास कहते हैं | इसलिए मैं कहता हूँ जब विश्वास टूट जाता है तब अन्धविश्वास ही आदमी का सहारा होता है । धन्यवाद ।-Priyadarshan Shastri
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