Total Pageviews

Sunday, July 22, 2012

बचपन

हम बड़े हो गए बचपन हमारा कहीं को गया | छोटे थे तो बारीशों के बहते पानी में कागज की क़श्तियाँ चलाते थे, ऐसे करते थे वैसे करते थे | अरे भाई ! बचपन कहीं नहीं खोया | वो तो आज भी हमारे अंदर ज़िंदा है | हम जबरन बड़े हो गए हैं | इसी बड़ेपन के अहसास ने तो अंदर के बचपन को दबा रक्खा है | बस एक हिम्मत चाहिए इसे जीने की | दोस्तों ! जिस दिन से हम अपने बचपन को छुपाना शुरू कर देते हैं उसी दिन से हमारा बड़प्पन आरम्भ हो जाता है | आओ फिर से एक एक काग़ज़ की कश्ती बनाएँ, फिर से उसे बारिश के पानी में बहाएँ | मैं तो दोस्तों कब से हाथों में काग़ज़ की क़श्ती लिए बाहिर खड़ा हूँ बस इंतज़ार कर रहा हूँ तो एक झमाझम बारिश की | धन्यवाद |   

No comments:

Post a Comment