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Sunday, November 6, 2011

सर्वोपरिता


अक्सर कहा जाता है कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है | यह बात कुछ हद तक सही है परंतु मेरी राय में किसी भौगोलिक सीमा में लोगों के रहने मात्र को हम राष्ट्र नहीं कह सकते, चाहे वे लोग स्वतन्त्र तथा उस भू भाग के मालिक ही क्यों न हों | लोगों के स्‍वतंत्र और मालिक हो होजाने मात्र से लोकतंत्रात्मक राष्ट्र नहीं बन जाता है | लोकतंत्रत्मकता एक व्यवस्था का नाम है | उस व्यवस्था में सर्वोपरि कौन होगा यह विचारणीय है | किसी भी व्यवस्था में व्यवस्थापक सर्वोपरि होगा या वे लोग  जिनके लिए वह व्यवस्था है, यह विवाद का विषय है | अतः सर्वोपरिता हमेशा से झगड़े का कारण रही है | इस समस्या से निजात पाने के लिए मानव समाज ने सर्वमान्य तरीका अपनाया जिसके अंतर्गत सभी के भले के लिए कुछ मान्यताएँ बनाईं गई जिनकी पालना करना सबके लिए अनिवार्य होता है | समयानुसार व्यवस्थापक बदल सकते हैं परंतु मान्यताएँ लंबे समय तक कायम रहती हैं | इन्हीं मान्यताओं के अंतर्गत संपूर्ण व्यवस्था चलती है | लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में इन्हीं सर्वमान्य मान्यताओं को संविधान कहा जाता है | जिस व्यवस्था में आप कई और लोगों के साथ रह रहे हैं वहाँ आपको व्यवस्था की पालना करना अनिवार्य होता है | आप उस व्यवस्था से ऊपर नहीं हो सकते | इसी प्रकार वह व्यवस्था उन मान्यताओं से ऊपर नहीं हो सकती जिसके अंतर्गत उसे चलना है | अतः लोकतंत्रात्मक राष्ट्र में जनता के ऊपर व्यवस्था होती है, व्यवस्था के ऊपर मान्यताएँ जिन्हें संविधान कहा जाता है | इसलिए मेरी राय में संविधान ही सर्वोपरि है |   

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