मेरी एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि हमारी मान्यताओं एवम् सोच को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है। एक आदमी की पीठ पर डंडा मार दिया जाता है, आदमी को चोट लगती है। हम उससे कहते हैं "चलो ये तो अच्छा हुआ डंडा सर पर नहीं पड़ा वरना.....।" ऐसा अक्सर होता है जो बुरा हो गया है उसकी निंदा कर उससे लड़ने के बजाय जो हुआ है उससे बड़े की कल्पना कर, जो बुरा हुआ है उसे हम जायज़ ठहरा देते हैं। यदि आदमी की एक आँख फूट जाए तो हम कहेंगे "ये तो अच्छा है तेरी दूसरी आँख सलामत है वरना तू देखता कैसे ? ये क्या बात हुई ?
ज़रा ध्यान से देखिए इस प्रकार सांत्वना देना आपकी आकर्मण्यता एवं कमजोरी का द्योतक है। सीधी सी बात है कुछ कर नहीं सकते इसलिए बुराई में भी अच्छाई ढूँढ कर सामने वाले को चुप कर दिया जाता है। इस प्रकार की सोच व्यक्ति की कमजोरी को ध्वनित करती है। जो हुआ सो हुआ इससे भी बड़ा हो सकता था। ये कमज़ोर लोगों की सोच है। अब सरबजीत के मामले को ही लीजिए। सब कुछ भूल कर कुछ दिनों बाद हमारे नेता शायद ये कहते देखे जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा कि "चलो पाकिस्तान ने इतनी तो दरियादिली दिखाई कि सरबजीत के मृत शरीर को हमारे देश भेज दिया वरना सरबजीत की बहन व बेटियों को (पाकिस्तान) धर लेता तो हम क्या कर लेते।" खैर धर लेने की बात से ध्यान आया कि सरबजीत की बहन-बेटियाँ एवं अन्य रश्तेदार सरबजीत को देखने पकिस्तान गए थे। पकिस्तान वाकई किसी जुर्म में उन्हें वहाँ धर लेता तो हमारे "डॉक्टर एम एम साहब" क्या कर लेते ? ज़रा ठन्डे दिमाग से सोचियेगा..............।
न तो हमारा देश कमज़ोर है न देश की जनता। कमजोर हैं तो सिर्फ हमारी अगुवाई करने वाले नेता। दुबले पतले एवं छोटी कद काठी के लालबहादुर शास्त्री भी थे जिनकी एक आवाज़ पर हमारी सेना आधे पकिस्तान को पार कर गई थी......... आज भी दुबला पतलापन एवं कद काठी वही है परन्तु ......... ? खैर धन्यवाद।
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