पिछले कुछ दिनों से लिखने का मन ही नहीं कर रहा | क्या लिखूं ? हर तरफ घोटालों का बाज़ार गरम है | मन बोर होने लगा है। अब चाहे अरविंद हो या अन्ना यदि आपके घर के सदस्य का नाम भी किसी घोटाले में उजागर कर दे तो आश्चर्य नहीं होगा। खैर, हज़ारों साल से हम रावण जलाते चले आ रहे हैं परंतु आज तक नहीं जला | अगर एक बार में ही जल गया होता तो हर साल किसे जलाते? इसलिए रावण को जलाने के लिए उसे जिंदा रखना ज़रूरी है। कहते हैं हम प्रगतिशील हैं। हमें अपनी प्रगति को बताने के लिए जलाए गए रावणो की संख्या भी तो चाहिए होती है। भगवान राम ने तो असल में रावण को मार गिराया था परंतु हमसे तो वो 'मरा' रावण भी नहीं जल पा रहा है। यदि किसी तकनीक से असल रावण जला भी दिया तो आने वाली पीढ़ी क्या करेगी ? हमारी सुई उसी कागज़ के रावण पर अटक गई है। हर साल विजयादशमी आती है, हम फिर एक कागज़ का रावण बना उसे किसी मैदान में खड़ा कर जला डालते हैं, रास्ते में चाट-पकौड़ी खा, रावण के जलने का तमाशा देख, घर आकर फिर अगले साल के लिए उसी रावण को जिन्दा करने में लग जाते हैं। हमने रावण को बुराइयों का प्रतीक माना है। हमारी बेशर्मी तो देखिये कि बुराइयों को किसी मैदान में जाकर जला आने के बजाय हम उसके प्रतीक को जलाते हैं यानि बुराइयों को बचाकर अपने साथ घर ले आते हैं। बुराइयों के प्रतीक के जलने को हम तमाशा समझते हैं। हद हो गई ! अब तो हर व्यक्ति की हंसी में रावण का अट्टहास दिखाई देने लगा है। जब तक रावण के जलने को आप तमाशा समझते रहेंगे तब तक रावण जलने वाला नहीं ! मेरे भाइयों तुम सब मिल कर असल रावण कब जलाओगे ? अब तो 'मरे' रावण की बदबू भी चारों और फ़ैल चुकी है। असल विजयादशमी तो उस दिन से मनने लगेगी जिस दिन से हम किसी मैदान में जा कर अपने अन्दर काम, क्रोध, मोह, एवं अहंकार से पैदा हो रहे दोषों को जलाने लगेंगे। धन्यवाद। -प्रियदर्शन शास्त्री
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