RBI ने अपनी पाक्षिक मौद्रिक नीति की समीक्षा कर CRR को २५ बेसिस पॉइंट से कट कर ४.५० कर दिया है जो २२ सित. यानि आज से लागू होगी | RBI का कहना है कि इससे १७ हज़ार करोड़ रुपये बेंकिंग सिस्टम को मिलेंगे जिससे मुद्रास्फीति की दर को नियन्त्रित करने में मदद मिलेगी तथा मुद्रा की लिक्विडिटी बढ़ने की संभावना है | चार -पाँच दिन पहले टीवी चैनल पर अहलूवालिया जी खुश नज़र आ रहे थे कि RBI के कदम से स्थिति नियंत्रण में आएगी। एक अर्थ शास्त्री से ये पूछा गया कि क्या सीआरआर में कटौती से बैंक लोन की ब्याज दर में कमी आएगी तो उनका मानना था कि कम होने के बजाय बढ़ सकती है क्योंकि महँगाई दर पहले से ज़्यादा बढ़ गई है | कहने का मतलब है कि कोई एक राय नज़र नहीं आई कि RBI के क़दम का आखिर परिणाम क्या होगा | खैर चैनल पर बहस का अंत पत्रकार ने आने वाले दिनों में और महँगाई बढ़ने की संभावना से कर दिया |
जब से देश में नई आर्थिक नीति लागू हुई तब से CRR, रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, मुद्रास्फीति की दर, विकास दर महँगाई दर फिस्कल डेफिसिट आदि शब्द अख़बारों में तथा टी वी पर पढ़ने या सुनने को बहुतायत मिलने लगे हैं | मैं कोई इन शब्दों का ज्ञाता नहीं हूँ, हाँ सामान्य अर्थ मालूम है। कुछ दिन पूर्व एक टीवी चैनल पर दिखाई गई बहस को देख कर लगा कि हमारी अर्थ नीति इन्हीं शब्दों और आँकड़ों में उलझ कर रह गई हैं | आम नागरिक इनके जाल में फंस कर केवल महंगाई को भुगत रहा है। जीवन में इन शब्दों को शायद ही कभी कोई समझ पाएगा ।
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आर बी आई लोगो |
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कुबेर |
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया हमारे देश के जितने भी बैंक हैं चाहे राष्ट्रीय हों या प्राइवेट या फायनेंस कंपनियाँ उन सब का आका है। RBI ही देश में समस्त वितीय संस्थाओं के लिए दिशा निर्देश जारी करती है। मुद्रा के नियन्त्रण के अलावा RBI देश की मौद्रिक नीति का हर पंद्रह दिन में मूल्यांकन करता है। जिस प्रकार हम लोग अपने बैंकों से रुपयों का लेनदेन करते हैं उसी प्रकार देश के तमाम बैंक भी RBI से लेनदेन करते है, RBI भी उनसे लेनदेन करता है। दोनों में उधार रुपये लिए तथा दिए जाते हैं इस पर जो ब्याज या चार्ज लगता उसे "रेपो" तथा "रिवर्स रेपो" कहा जाता है इसकी दर RBI तय करता है। हर बैंक को RBI द्वारा निर्धारित मात्रा में टोटल जमा का एक भाग या फंड अपने पास रिजर्व रखना पड़ता है। उदाहरण के लिए १००/- जमा है तो १०/- रिजर्व रखने पड़ेंगे बाकी ९०/- का लोन दिया जा सकता है। इसी फंड को CRR कहते हैं। देश के बैंकों में जमा इसी फंड सीआरआर में RBI ने कट किया है इसी कारण १७ हज़ार करोड़ रुपये बैंकिंग बाज़ार में उपलब्ध हो जाएँगे जिससे रुपये की लिक्विडिटी बढेगी | ये तो हुई कुछ तकनीकी बातें। अब यहाँ कुछ सवाल उठते हैं-
१-क्या आज देश के बैंकों के ये हालात हैं कि उनके पास जमा की इतनी कमी है कि सीआरआर में कट करके फंड जुटाया जा रहा है ?
२- क्या बैंकों ने स्पर्धा के कारण अपनी लिमिट से अधिक की राशि लोन के रूप में बाहर कर दी है ?
३-जो राशि लोन के तौर पर दी गई है क्या उसकी पूरी तरह से वसूली हो रही है ?
४- जमाओं पर कम ब्याज दर होने से क्या लोग बैंक में पैसा रखना पसंद नहीं करते ?
५- रुपये का अवमूल्यन का इसमें कितना असर पड़ता है ?
६- वस्तुओं के दाम बढ़ने एवम् रुपये की डॉलर के मुक़ाबले कीमत घटने से मुद्रास्फीति बढ़ती है ये नई अर्थ नीति के कारण तो नहीं है ? क्योंकि मुद्रास्फीति की बढ़ती दर बैंकिंग सिस्टम को बहुत प्रभावित करती है |
७- क्यों देश के बड़े बड़े पूंजीपति बैंकों में पैसा न रखकर आवश्यक वस्तुओं में इनवेस्ट करके अपने आपको सुरक्षित महसूस करने लगे हैं ?
८- नई अर्थ नीति के तहत इंटरनेशनल मार्केटिंग के कारण बड़ी मात्रा में जो पूंजी देश से बाहर जा रही है वो इसके लिए कितनी ज़िम्मेदार है ?
९-भ्रष्टाचार एवम् काले धन का कितना असर है ?
१०- किराना व्यवसाय के नाम पर विदेशियों से फंड जुटाने की नीति कहीं रुपयों की लिक्विडिटी बढ़ाने मात्र की कुछ समय की तरकीब तो नहीं है ?
और भी कई सवाल हैं | एक सीधी सी गणित है आप मेहनत करते हैं अपना कमाया पैसा बैंक में जमा करते हैं। इसी जमा से बैंक लोन का कारोबार करता है तथा ऋण के तौर पर दूसरे लोगों को रुपया दे कर ब्याज कमाता है उसी ब्याज की राशि से आपको आपकी जमा पर ब्याज दिया जाता है। ये एक चक्र है जो निरंतर चलता है। नई आर्थिक नीति के माध्यम से देश में अधिक से अधिक विदेशी कंपनियों को बुलाया गया, उनके उत्पाद के लिए देश में बहुत बड़ा बाज़ार उपलब्ध कराया गया। इधर लोगों की खरीद क्षमता बढाने के लिए बैंकिंग सिस्टम को अधिक से अधिक लोन देने को कहा गया। बैंकों में पहले से जमा राशि को बाज़ार में लाने के लिए जमाओं पर कम ब्याज कर दिया गया इससे लोग पैसे को बाज़ार में लाने को मजबूर हो गए। अब इस चक्र में ठेठ गलिकूचे से लेकर कार्पोरेट जगत तक के कई लोग ऐसे भी आए जिन्होंने बैंकों से धंधों के नाम पर बहुत बड़ी बड़ी राशियाँ ऋण के तौर पर ले कर अपने घर भर लिए। कोर्पोरेट को छोड़ों मैंने कई लोगों को देखा है जिन्होंने धंधे के लिए लोन पर ट्रेक्टर आदि वाहन खरीद तो लिए पर समय पर किश्ते नहीं चुका पा रहे हैं ऐसे आपको एक नहीं हजारों केस मिलेंगे। लोन का समय पर भुगतान न करने की वजह से अब बैंकों के पास मुद्रा की कमी पड़ने लगीं है। नई आर्थिक नीति के कारण आज बैंक, लोन देने की मशीन मात्र बन गया है। सभी बैंक ऋण देने की स्पर्धा के दबाव में हैं। सरकार बैंकों में पैसा लाने के फेर में देश के भौतिक संसाधनों को चंद रुपयों में विदेशियों को सुपुर्द किये जा रही है। एक ज़माने का बैंक का अमानती का रूप कब स़े समाप्त हो गया है। आपको याद होगा एक समय था जब बैंक में खाता होना प्रतिष्ठा की बात होती थी। आज आप जाकर देखिये बैंकों में खाते अधिकतर लोन लेने के लिए खोले जाते हैं। हर बड़ा आर्थिक घराना देश में उपलब्ध प्राकृतिक रिसोर्सेस एवं रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली सामग्री को अपने कब्जे में करने की होड़ में लगा है। आने वाले दिनों में सडकों पर यदि "रिलायंस" की पाव की थाडियाँ दिखने लगे तो आश्चर्य मत करना ! इधर सरकार हमारे देश में CRR, विकास दर, रेपोरेट, मुद्रास्फीति महंगाई दर आदि शब्दों के जाल में देश को उलझाकर वास्तविक स्थिति को आम जन से छुपाने में लगी है। धन्यवाद।
-प्रियदर्शन शास्त्री।
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