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Thursday, September 6, 2012

आरक्षण

      सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर आरक्षण का मुद्दा हमेशा से बहस का रहा है | एक तरफ संविधान का अनुच्छेद १५ है जो जाति, धर्म, लिंग, मूलवंश एवम् जन्मस्थान के आधार पर नागरिकों में विभेद करने से मना करता है तो दूसरी ओर संविधान की वो मूल भावना है जिसमें देश के आर्थिक, सामाजिक एवम् शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाने की है | संविधान में पिछड़े वर्ग की कोई परिभाषा नहीं दी गई है | आजादी के बाद सर्वप्रथम १९५३ में काका साहेब कालेलकर की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया था जिसमें उन्हें १- समाज में कौनसे वर्गों को पिछड़ा माना जाए २- पिछड़े वर्गों की सूची तथा ३- पिछड़े वर्ग की कठिनाइयों की परीक्षा एवम् उन्हें दूर करने के उपाय खोजने का काम सौंपा गया | १९५५ में आयोग ने रिपोर्ट दी। परन्तु काकासाहेब कालेलकर ने रिपोर्ट सौंपते वक्त आयोग द्वारा बताए गए उपायों के प्रति असहमति जाता दी थी। उनके अनुसार "आयोग द्वारा अपनाई गई सम्पूर्ण लाइन लोकतंत्र की आत्मा के विरुद्ध हैं, जिस दुरात्मा (पिछड़ापन ) से आयोग को लड़ना है उसके लिए सुझाए गए उपाय बेकार हैं। लोकतंत्र में एक व्यक्ति उसकी इकाई होता है न कि परिवार या जाति । जिन लोगों की 800/- (उस समय) सालाना से कम आय है वे सब पिछड़े माने जाने चाहिए ।" कालेलकर साहब ने सरकारी पदों पर पिछड़ों के आरक्षण को जाति के आधार पर होने से असहमति जताई थी। उनके शब्दों में “Services are not meant for the servants but for the service of the society as a whole”. उनकी विचारधारा से तत्कालीन केंद्र सरकार ने असहमत होते हुए राज्य सरकारों को अपने स्तर पर ही इस समस्या से निपटने के अधिकार दिए थे | राज्य सरकारों ने अपने अपने तरीके से पिछडे वर्गों की सूचियाँ, जिनमें वे जातियां जो दलित जिन्हें अस्पृश्य कहाजाता था, जो आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से हजारों सालों से पिछाड़ी हुई थीं को शामिल कर, जो उन्हें उचित लगा उपाय किए । समाज की अस्पृश्य जातियों को अनुसूचित जाति एवं जो अस्पृश्य नहीं थे फिर भी समाज की मुख्य धारा से जुदा थे उन्हें जनजाति की श्रेणियों में रखा गया बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) आदि आदि बनाए गए। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के माध्यम से उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाना सबसे सरल उपाय था। संविधान के अनुच्छेद 17 के द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया है इसी सोच के अंतर्गत अछूत जातियों के लोगों को छोटी छोटी नौकरियां देकर उनके अछूत होने के रिवाज़ को मिटाकर समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया गया।                       
             दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बी. पी. मंडल ने सन १९८० में अपनी रिपोर्ट सरकार को दी | इसी मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर सन १९९० में सरकारी नौकरियों में २७% आरक्षण दिया गया | ये वही आयोग है जिसकी रिपोर्ट पर देश में बवाल मचा था | आपको याद होगा | इस रिपोर्ट को लोगों ने असंवैधानिक माना जिसका प्रकरण उच्चतम न्यायालय में लंबित है | सन १९५५ से लेकर १९९० तक तथा अब तलक पिछड़ा वर्ग किसे माना जाए यह तय नही हो सका है | आज तक आरक्षण को लेकर हमारे देश में जाति के आधार पर सैंकड़ों उप वर्ग बना दिए गए हैं जो शायद आंकड़ों में ही खो गए हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि समस्त राजनीतिक दलों ने आज़ादी के बाद के बीते ६५ वर्षों में संविधान के सामाजिक समरसता के इस नोबल उद्देश्य का उपयोग अपने वोट बैंक को बनाने के हथियार के रूप में ही किया है | अनुसूचित जाती, जनजाती या अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचियाँ बनाने में राज्य सरकारों द्वारा कोई गंभीर प्रयत्न नहीं किए गए | सूचियों में उन जातियों को सीधा शामिल कर दिया गया जो वोट बैंक में परिवर्तित हो सकती थी | संविधान के प्रावधान क्या कहते हैं उसकी भावना क्या है आदि की परवाह न करते हुए उसमें अपनी सुविधानुसार संशोधन किये गए। ऐसे संशोधनों में कांग्रेस शासित राज सबसे आगे रहा है। आर्थिक एवम् शिक्षा के लिहाज़ से पिछड़े नागरिकों की पहचान करने के बजाय सीधे तौर पर दलितों एवं आदिवासियों में से कुछ लोगों को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें वोट बैंक में तब्दील किया गया जो ग़लत था | आज अनुसूचित जाति  शब्द बीते जमाने में रही अछूत जातियों का ही पर्याय मात्र बन गया है | माना कि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग अछूत एवम् सामाजिक दृष्टि से पीढ़ियों से पिछड़ा हुआ है उन्हें लाभ मिलना चाहिए। हमारा संविधान नागरिकों के पिछड़ेपन की बात करता है न कि जातियों के। किसी जाति विशेष का सामाजिक तौर पर पिछड़ा होना या दलित होना एक अलग मुद्दा है जिसके लिए समुचित कानून बनाकर उनके इस पिछड़े पन को दूर किया जा सकता है । ऐसे प्रावधान हमारे संविधान में हैं तथा कानून भी है परन्तु आर्थिक एवं शिक्षा के पिछड़ेपन  का दायरा अलग है जो मात्र दलितों में ही नहीं देश के अन्य वर्गों में भी है । आर्थिक एवं शिक्षा के पिछड़े पन का दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है । सामाजिक पिछड़े पन से लड़ने का नौकरियों में आरक्षण से कोई वास्ता नहीं है । आरक्षण से उनका केवल आर्थिक पिछड़ा पन दूर किया जा सकता है शिक्षा एवं संस्कृति का नहीं। उसके लिए जन जागृति की आवश्यकता है। वास्तविकता ये है कि जिन जातियों को अनुसूचित मानते है उन पर उनके दलित होने का एक सरकारी ठप्पा पक्के तौर पर लगा देते हैं और स्थिति ये है कि हमारे देश में दलितों में से कोई एक व्यक्ति राष्ट्रपति बनने के बाद भी दलित ही रह जाता है। दलित को दलित एवं अछूत कहना स्वयं में अभिशाप है ये बात गाँधी जी ने कही थी, दुर्भाग्य देखिये कि नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के लिए एक दलित को, उसके दलित होने का सरकार से प्रमाण पत्र लेना पड़ता है। धन्यवाद।- Priyadarshan Shastri

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