हम सब दोहरी मानसिकता की जीवन धारा में बह रहे हैं | एक आदर्शों की तो दूसरी वास्तविकता की | हमारे आदर्श माता-पिता का सम्मान एवम् सेवा करने की कहते है, संतानों से भगवान राम की तरह आज्ञाकारी होने की अपेक्षा की जाती है । लोग आपस में प्रेम एवम् भाईचारे से रहें ऐसी हमारी कल्पना है | लोगों से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है । ये सब हमारे आदर्शों की दुनिया का एक परिदृश्य मात्र हैं |
अब ज़रा वास्तविकता की दुनिया में क़दम रखते हैं | एक सज्जन से मातापिता के सम्मान एवं सेवा के बारे में पूछा तो वे कहने लगे "जितना बन पड़ता है उतना सम्मान एवम् उतनी सेवा करते हैं | आज की आपाधापी में समय कम ही मिल पाता है ?" आज्ञाकारिता पर जब हमने सज्जन से राय जाननी चाही तो उनका कहना था कि भाई ! ये सही है कि माता-पिता के कहे अनुसार चलना चाहिए पर मातापिता की आज्ञा एवं रीतिनीति क्या है और किस सम्बन्ध में है ये सब कुछ देखना पड़ता है ? वरना हमारा भी अपना जीवन है, धंधा-पानी है । हमारे भी बीवी-बच्चे हैं, घर गृहस्थी हैं सब कुछ चलाना पड़ता है |" हम सोच में पड़ गए। जब राम की आज्ञाकारिता का उदाहरण दिया तो वे तपाक से बोले- "भाई ! राम का उदाहरण हमारे सामने मत दो वो जमाना अलग था। भगवान राम तो चलो आज्ञाकारी थे और बनवास चले गए परन्तु दशरथ, केकई एवम् मंथरा ने जो किया उस पर भी ज़रा सोचो ! उनको भी किसी बड़े बुजुर्ग ने यदि नसीहत दी होती तो राम बनवास नहीं जाते और सीता मैया को रावण उठा के नहीं ले जाता ?" हमने कहा कि भाई वो तो रावण का अंत आ गया था इसलिए ये सब हुआ था। हमारी बात पर सज्जन हंस दिए, कहने लगे "बड़े भोले और नादान हो" तर्क देते हुए बोले कि सीता मैया के अपहरण को रावण की मौत से मत जोड़िए जनाब ! रावण कौनसी अमर जड़ी खा कर आया था जो हमेशा के लिए जिंदा रहता | मौत को तो बस अदद एक बहाना चाहिए होता है । एक न एक दिन तो मृत्यु सब को आनी ही है। बात रावण के बजाय सीता मैया की करो अपनी बहू-बेटी को यों जंगल में ले जाओगे तो अपहरण नहीं होगा तो क्या होगा ? आज चारों और शहर बस जाने के बावजूद भी बहू-बेटी सुरक्षित नहीं है, तो राम के जमाने में क्या हालात रहे होंगे ? जरा कल्पना तो करके तो देखो ? रावण रूपी बुराई का अंत होना अच्छी बात है पर उसके लिए सीता मैया को क्यों लपेट रहे हो उसे तो कम से कम बक्ष दो | राम आज्ञाकारी हो गए, रावण का अंत हो गया पर सीता मैया पर तो अत्याचार हो गया ना | मैं तो कहूँ असल में रावण का अंत राम ने नहीं सीता मैया ने ही किया है | बाल्मीकि जी ने रामायण के बजाय सीतायण लिखनी चाहिए थी।" हम सज्जन की बातें सुन कर आवाक रह गए, क्या करते ? खैर चुपचाप निकल लिए |
आगे बढे तो न्यायालय में लंबित एक प्रकरण में संपत्ति के लिए आपस में झगड़ते भाई-बहनों से हमने कहा कि भाई ! माता-पिता की संपत्ति के लिए यों झगड़ना अच्छा नहीं लगता | वे सज्जन बोले -"अपने हक़ के लिए लड़ रहे हैं ये लड़ाई तो कौरव पांडव के जमाने से चली आ रही है | क्या मुकेश अंबानी अनिल अंबानी नहीं लड़े | ये तो दुनिया की रीत है भाई साहब !" हम क्या कहते टकटकी लगा कर उन सज्जन को देख रहे थे | हमारे देखने के अंदाज पर वो बोले - "भाई ! लगता है आपको आपकी संपत्ति का हिस्सा मिल चुका है इसीलिए प्रेम एवम् भाई चारे की नसीहत देने यहाँ चले आए हो |"
खैर जो भी हो हमें लगा कि हमारे आदर्श कुछ और कहते हैं तथा व्यावहारिकता में कुछ और ही देखने को मिलता है | कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है | आप लोग भी जरा सोचिए ! हमारी कथनी और करनी में तालमेल क्यों नहीं है ? हमारे देश में राम एवं कृष्ण जैसे महापुरुष हुए हैं, सीता मैया जैसी त्याग की मूर्ति हुई है, इसके अलावा महात्मा बुद्ध, महावीर, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, महात्मा गाँधी ऐसे न जाने कितने महान लोग हो चुके हैं बावजूद इसके फिर भी हम वहीँ के वहीं खड़े हैं । सवाल ये है कि आज तक हमने अपने आदर्शों का व्यवहारिकरण क्यों नहीं किया क्यों नहीं उनको इस प्रकार बनाया कि उन्हें जीवन में उतारा जा सके ? आज वास्तविकता हमारी ये है कि देश में हर दुसरे घर में चाहे वो अमीर हो या गरीब, इन आदर्शों के बहाने एक सदस्य दूसरे सदस्य पर छींटाकशी करने से नहीं चूकता है । यही छींटाकशी एक दिन विकराल रूप लेकर झगड़े का रूप लेलेती है। "सीता मैया" भी इसी प्रकार की एक छींटाकशी का शिकार हुई थीं आप सब को याद होगा ? धन्यवाद ।
(लेख किसी की भावनाओं को ठेस पंहुचाने के लिए नहीं लिखा है बल्कि समाज की वास्तविकता को बाहर लाने का एक प्रयास मात्र है )
-लेखक -प्रियदर्शन शास्त्री
-लेखक -प्रियदर्शन शास्त्री

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